अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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भी संभव हुआ। अस्तु, जीवन ज्ञान और अस्तित्व दर्शन का सहज प्रमाण में ही आवर्तनशीलता को अर्थशास्त्र विधा में पहचानना सहज है। इस तारतम्य में यह भी ध्यान में रहना आवश्यक है कि आवर्तनशील अर्थशास्त्र और व्यवस्था को साक्षात्कार करने के लिए, दूसरे भाषा में देखने के लिए जीवन ज्ञान अथवा जीवन विद्या, अस्तित्व दर्शन में पारंगत होना, मानवीयता पूर्ण आचरण में प्रमाणित रहना आवश्यक है। इसी आधार पर जागृति प्रमाणित हो पाती है और जागृतिपूर्वक मानव आवर्तनशील अर्थशास्त्र में जीना हो पाता है। इसके लिए यह भी बल मिलता है इस प्रकार आवश्यकता भी समीचीन हो गया कि अभी तक किये गये ईंधन स्त्रोत, उत्पादन कार्य विधि और विपुल उत्पादन और लाभ और संग्रह का लक्ष्य आधार अब पुनर्विचार के योग्य हो चुके हैं। इसके मूल में लक्ष्य विहीन संग्रह ही राष्ट्रीय अथवा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा के आधार पर आधारित मूल्यांकन विधियों को पुनः परिशीलन करने का कार्य इस अर्थशास्त्र के इस अध्याय में एक प्रधान बिन्दु है। इसके परिशीलन क्रम में स्वाभाविक ही सहअस्तित्व विधिपूर्वक ईंधन योजना स्रोत, संप्राप्ति विधाओं में भी परिशीलन और विकल्पों को पहचानने की आवश्यकता बलवती होगी।

इस धरती के मानव जहाँ तक उत्पादन कार्यों में पारंगत हो पाये हैं इसके लिए जो यंत्र संपादन विधि हस्तगत किये हैं यह कोई अर्थशास्त्र में व्यतिरेक पद्धति नहीं हैं। सहअस्तित्ववादी अर्थव्यवस्था विरोधी उत्पादन केवल युद्ध सामग्री का निर्माण है। युद्ध मानसिकता सहअस्तित्व विरोधी, मानवीयतापूर्ण मानसिकता के विरोधी होने के कारण, युद्ध सामग्री संबंधी सभी प्रकार के साधन अमानवीय होना स्पष्ट है। दूसरे विधि से युद्ध मानसिकता-युद्धाभ्यास किसी संस्कृति-सभ्यता का आधार नहीं हो पाया। जबकि भक्ति और विरक्ति संबंधी मानसिकता से श्रेष्ठ संस्कृति की कल्पना करते हुये भी संभव नहीं हो पाया। संग्रह विधि से श्रेष्ठ संस्कृति की संभावना बनती ही नहीं है। मानव जाति अभी तक इतना ही कर पाया है। अर्थशास्त्र का सूझ-बूझ संग्रह और युद्ध को बरकरार रखने के आधार पर ही विकसित हुई है। इन तथ्यों के आधार पर भी विचार करने पर पता लगता है लाभोन्मादी अर्थव्यवस्था के स्थान पर विकल्प की आवश्यकता है। अस्तु आवर्तनशील अर्थव्यवस्था को समझना एक स्वाभाविक एवं आवश्यकीय अध्ययन है।