अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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को देखा जाता है। बाकी चारों के पक्ष में जो व्यापार कार्य है वह सर्वविदित है। व्यापार का मूल उद्देश्य लाभोन्माद ही है। कम देना-ज्यादा लेना मुद्रा के रूप में एवं वस्तु के रूप में भी। कुछ भी नहीं देना, आश्वासनों के आधार पर ही वस्तु और मुद्रा को एकत्रित कर लेना ही दुष्टतम ज्ञान व्यापार है। संसार को बुद्धू बनाने की कला इसमें समाहित रहती है।

उक्त पाँच प्रकार के व्यापार के अतिरिक्त वस्तु व्यापार मानव करता ही है। इसमें भी मुद्रा ही माध्यम है। मुद्रा में, मुद्रा से, मुद्रा के लिए वस्तुएं बिकता हुआ हर व्यक्ति देखता ही है। इसीलिए मुद्रा के प्रति सर्वाधिक लगाव हर मानव में देखने में आया। वस्तु व्यापार में मुख्य प्रक्रिया उत्पादक से वस्तु को खरीद करना, और उपभोक्ता को प्रस्तुत करना। हर व्यापारी अपने ढंग से अधिक लाभ के लिए प्रयत्नशील होना देखा गया है। ऐसे प्रयत्न क्रम में जो सफल हो जाते हैं वे अपने को धन्य मानते हैं जो असफल हो जाते हैं वे अपना सिर कूटा करते हैं यह सर्वविदित है। वस्तु व्यापार के अनन्तर सातवां प्रक्रिया है, प्रौद्योगिकी व्यापार। उद्योगों में अनेक विद्वान और तकनीकी सम्पन्न व्यक्तियों को वेतन भोगियों के रूप में खरीदने की व्यवस्था बनी रहती है। हर उद्योगों में स्थापना दिवस से ही लाभाकांक्षा समाया रहता है। इसका आंकड़ा क्रम से एक-एक व्यक्ति की कार्यकलापों से उत्पादन, उसका तादात, गुणवत्ता, उसका प्रचलित पत्र-मुद्रा मूल्य, उस पर आयी संपूर्ण प्रकार का व्यय और उसका ब्याज पूर्णतया वापस होने के उपरांत लाभ का बिन्दु आरंभ होता है। वह कितने बड़े संख्या में यथा 1, 2, 3, 4, .., 10, 20, ... क्रम से हजारों, लाखों, करोड़ों संख्या में अंत विहीन होने के क्रम में सफलता, सामान्य सफलता, अल्प सफलता और असफलता मानी जाती है। ये सभी प्रौद्योगिकी संसार से सम्बद्ध हर व्यक्ति को विदित है।

सम्पूर्ण उत्पादनों को कृषि, पशुपालन और उद्योग के रूप में समझा गया है। कृषि व पशुपालन संबंधी उत्पादन कार्य भी लाभाकांक्षा में आना सहज रहा। बाकी सभी व्यापार कार्य में प्रसक्त हुए। फलत: कृषि भी लाभाकांक्षा से पीड़ित होता रहा। चाहे कृषि उपज हो अथवा प्रौद्योगिकी उपज हो, लाभाकांक्षा बनी ही है। इतना ही नहीं शिक्षा और ज्ञान संबंधी आदान-प्रदान भी व्यापारोन्मुखी लाभाकांक्षी संग्रहवादी होने के कारण से भोगोन्मादी समाजशास्त्र का प्रचलन हुआ। इस क्रम में मानव परंपरा भोगवादी