अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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अध्याय - 4

आवर्तनशीलता - अनिवार्यता और उसका स्वरूप

सुदूर विगत से अब तक के आर्थिक इतिहास और परिवर्तन के सिलसिले को देखने से संग्रहवादी अर्थचेतना अथवा संग्रहवादी मानसिकता जनमानस में स्थापित हो चुका है। ऐसे विचार और ज्ञान का लोकव्यापीकरण संभव हुआ है। वर्तमान में जो कुछ भी अर्थव्यवस्था के नाम से स्वीकार किए हैं- संग्रह में, संग्रह से, संग्रह के लिए क्रियाशील होता हुआ देखने को मिलता है।

संग्रह में अर्थ का रूप मूलत: जड़ वस्तु को मान लिया गया है। जिसको अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष अथवा राष्ट्रीय मुद्रा कोष का मूल पूँजी अथवा पत्र मुद्रा का अथवा उससे भिन्न अन्य धातु मुद्राओं का मूल्यांकन का मापदण्ड सुदृढ़ राष्ट्रीय कोष के आधार पर अथवा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के आधार पर निर्भर होना आज की मान्यताएँ हैं। राष्ट्रीय मुद्राकोष की मूल पूँजी को सोना रूपी धातु के रूप में पहचाना गया है, जो न्यूनतम प्रयोजनकारी उपयोगी धातु है। सोने के महत्व को अलंकार के रूप में विविध विग्रहों पर, स्थानों पर, मानवों पर अलंकृत कर नेत्रानंद का लाभ उठाया। यह क्रियाकलाप आज भी प्रचलित है। इसका दूसरा पहलू शरीर व्याधि, रोग के लिए दवाई के रूप में प्रयोग होना पहचाना गया है। इसका उपयोग एक प्रतिशत व्यक्ति में अभी तक हुआ नहीं। आयुर्वेदीय रसायन शालाओं में इसका भस्म बनाने का दावा अवश्य करते हैं। शीशियों के ऊपर ‘सुवर्ण भस्म’ लिखा भी रहता है। ज्यादा से ज्यादा ऐसा भस्म बनाने वाले रसायन कारखाना एक के बाद एक पैदा होता ही रहता है। इसी के साथ-साथ और कुछ दवाईयों के साथ निरा सोना भस्म के अतिरिक्त इस धातु का उपयोग उल्लेखित है। इन औषधियों के साथ संलग्न और प्रयोजित मात्रा न्यूनतम होना पाया जाता है। उससे अधिक अलंकारिक वस्तुओं के रूप में होना व किसी पूजा स्थल, गौरव स्थल, सम्मान स्थल और व्यक्तियों के देह पर देखने को मिलती है। शेष सभी स्वर्ण धातु सर्वाधिक भयभीत सुरक्षा के छाया में सुरक्षित रहना देखा गया है। भयभीत इसीलिए उल्लेखित किया गया है कि सोने को ताकने वाले हर व्यक्ति के हाथों सक्षम आयुध-औजारों का