अर्थशास्त्र
by A Nagraj
अध्याय - 3
आर्वतनशील अर्थशास्त्र : अवधारणा
आवर्तनशीलता वर्तुलाकार में होना समझ में आता है। आवर्तनशील अर्थशास्त्र का तात्पर्य तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग, सुरक्षा और समृद्धि के रूप में दृष्टव्य है। यह आवर्तनशील होना पाया जाता है। मन मूलत: जीवन में अविभाज्य कार्य कलाप है। जीवन शक्ति रूपी आशा, विचार, इच्छाएं, संकल्प अनुभवपूत होकर अर्थात् अनुभवमूलक विधि से शरीर के माध्यम से प्राकृतिक ऐश्वर्य पर निपुणता कुशलतापूर्वक श्रम नियोजन कार्य को करता है। श्रम नियोजन के फलस्वरूप उपयोगिता और कलामूल्य सम्पन्न वस्तुए उत्पादित होती है। यही धन है। अनुभवपूत मन अथवा अनुभव से अनुप्राणित मन निपुणता, कुशलता, पांडित्य को शरीर के द्वारा संप्रेषित अभिव्यक्त करता है। मानव परंपरा में जीवन प्रमाणित होने के लिए मानव शरीर की अनिवार्यता समझ में आती है। इस प्रकार अर्थोपार्जन के लिए तन एक महत्वपूर्ण वस्तु है। शरीर का उपयोग करने वाला वस्तु जीवन ही है। जीवन में से मन अधिकांश शरीर को उपयोग करता है। क्रम से अनुभव, बोध, चिंतन, तुलन सम्मत विधि से मन शरीर का उपयोग करता है तभी शरीर का सदुपयोग होना प्रमाणित होता है। शरीर की सुरक्षा के लिए जीवन सदा ही शरीर को जीवंत बनाए रखता है। मानव शरीर को जीवंत बनाए रखने में मन ही प्रयोजित रहता है। प्रयोजित रहने का तात्पर्य प्रयोजनों के अर्थ में योजित रहने से है। योजित रहने का तात्पर्य पूरकता सहवास के रूप में होने से है। शरीर जीवंत रहना शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधेन्द्रियों का कार्य जीवन स्वीकृत अथवा जीवन के द्वारा दृश्यमान होने के रूप में स्पष्ट होता है। शब्द के द्वारा व्यंजित होना कर्ण यंत्र से पहचाना जाता है फलस्वरूप शब्द का अर्थ अस्तित्व में कोई न कोई वस्तु, मूल्य, स्थिति-गति पद के अर्थों में से कोई न कोई अर्थ स्वीकृत होता है, साक्षात्कार होता है। इसी प्रकार अन्य सभी इन्द्रियों में व्यंजना के साथ उसका अर्थ साक्षात्कार होना पाया जाता है। साक्षात्कार विधि जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह के रूप में अध्ययन स्पष्ट होता है। इसे हर व्यक्ति अपने में परीक्षण कर सकता है निर्वाह करने में भी परस्पर व्यंजनापूर्वक अर्थ साक्षात्कार स्वीकृतियाँ हो पाता है। इस विधि से धन, तन द्वारा मन