अर्थशास्त्र
by A Nagraj
गंतव्य ही सहअस्तित्व में परमाणु सहज विकास होने के अनन्तर जीवन लक्ष्य होना, सार्थक होने का तथ्य अध्ययनगम्य है। इस प्रकार इस धरती में भ्रमात्मक मानव समुदायों से निर्भ्रम मानव, अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था एवं मानव परंपरा वैभवित होने का अध्ययनगम्य रूप में प्रस्तुत है।
पहले धीरता, वीरता, उदारता का स्वरूप स्पष्ट किया जा चुका है। मानव मूल्य के रूप में दया, कृपा, करूणा, जीवन जागृति पूर्णता का प्रमाण रूप में अथवा साक्ष्य रूप में व्यवहृत होना पाया जाता है। दया को मानव के आचरण में जीने देकर स्वयं जीने के रूप में देखा गया है। जीने देने के क्रम में पात्रता के अनुरूप शिक्षा-संस्कार को सुलभ कर देना, प्रमाणित होता है। दूसरे विधि से पात्रता के अनुरूप वस्तुओं को सहज सुलभ करा देने के रूप में स्पष्ट होता है। कृपा का व्यवहार रूप प्राप्त वस्तु के अनुरूप योग्यता को स्थापित करने के रूप में है। उदाहरण के रूप में मानव है, मानव एक वस्तु है, मानव में मानवत्व सहित व्यवस्था के रूप में जीने की योग्यता को स्थापित कर देना ही कृपा सहज तात्पर्य है। करूणा का तात्पर्य पात्रता के अनुरूप वस्तु; वस्तु के अनुरूप योग्यता को स्थापित करने के रूप में देखा जाता है। यह मूलत: मानव में उदारता और दया, देवमानव में दया प्रधान रूप में और कृपा करुणा; दिव्यमानव में दया, कृपा, करूणा प्रधान रूप में, व्यवहृत होने की अर्हता प्रमाणित हो पाती है। ऐसे परिवार मानव, देव मानव, दिव्य मानव के रूप में समृद्ध होने योग्य परंपरा को पा लेना ही जागृति परंपरा का लक्षण और रूप है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि जागृत परंपरा पूर्वक ही सर्वमानव, मानवत्व रूपी सम्पदा से सम्पन्न होता है। ऐसे सम्पन्नता क्रम में आवर्तनशील अर्थशास्त्र, व्यवहारवादी समाजशास्त्र और मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान सहज शिक्षा-संस्कार विधा में चरितार्थ करना एक आवश्यकता है।
जय हो ! मंगल हो !! कल्याण हो !!!