अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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प्रकार बोध पूर्वक प्रवर्तन अर्थात् अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन ही अनुभव बोध सहित होने रहने के आधार पर संकल्पों की दृढ़ता निष्ठा के रूप में प्रमाणित होती है। इस तथ्य को हर व्यक्ति में अध्ययन किया जा सकता है और वैभव की आवश्यकता पूरकता प्रत्येक नर-नारी में देखने को मिलता ही है, इसलिए अध्ययनपूर्वक न्याय, धर्म, सत्य बोध करना एक व्यवहारिक सत्य के रूप में अनुभव किया गया और आंकलित किया गया। इससे सर्वमानव पारंगत को समृद्ध संपन्न होने के लिए मानव परंपरा ही जागृत होने की आवश्यकता है। परंपरा का स्वरूप मानवीयतापूर्ण शिक्षा, मानवीयतापूर्ण संस्कार, मानवीयतापूर्ण संविधान और मानवीयतापूर्ण व्यवस्था के रूप में ही नित्य वैभव और गति होना ही सार्थकता है। ऐसी सार्थक स्थिति को परंपरा में प्रमाणित करने के लिए सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान को अध्ययनगम्य करना ही होगा। इस विधि से मानव परंपरा जागृत होने और वैभवित होने की संभावनाएं स्पष्ट है। इसी क्रम में आवर्तनशीलता का साक्षात्कार भी एक अनिवार्य बिन्दु है। यह स्वयं अर्थात् जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान पूरकता विधि से आवर्तनशील है।

अनुभव और प्रामाणिकता का वैभव न्याय, धर्म और सत्य सहज प्रमाण सहअस्तित्व में नित्य वर्तमान रूप में समझने और समझाने की क्रियाकलाप, परस्परता में संप्रेषणा और अभिव्यक्ति-प्रकाशन होना पाया जाता है। जैसे एक उदाहरण के रूप में मुझसे कोई पूछता है - क्या मानव के बारे में विश्वास का परिशीलन करना आवश्यक है? इसको प्रमाणित करना भी आवश्यक है? इसके उत्तर में मैं कहता हूँ - हाँ आवश्यक है। फिर मुझसे पूछा जाता है आप कैसे विश्वास करते हो? इसके लिए मैं समझता हूँ कि

  • मानव का रूप एक शरीर रचना है।
  • मानव में कल्पनाशीलता कर्म स्वतंत्रता वर्तमान है।

कल्पनाओं के बारे में पहले स्पष्ट किया जा चुका है। आशा, विचार, इच्छाओं के अनुरूप कल्पना किया जाता है। वह चयन, आस्वादन, विश्लेषण, तुलन और चित्रण, इन साढ़े चार क्रियाओं में अर्थात् भ्रमित कल्पनाशीलता की सीमा में बारंबार परिशीलन करने योग्य जागृति सहज पाँचों क्रियाओं में से न्याय परिशीलन क्रम में विश्वास साम्य मूल्य के रूप में होना देखा गया है। पर्यावरण में विश्वास वश ही सांस लेता है, धरती पर