अर्थशास्त्र
by A Nagraj
कर्म स्वतंत्रता का नियोजन दृष्टव्य है। यह भय और प्रलोभन, संग्रह और द्वेष से ग्रसित होना सुदूर विगत से इस वर्तमान बीसवीं शताब्दी की दसवें दशक तक स्पष्ट हो चुकी है। ऐसे बंधनवश ही व्यक्तिवादी अहमताओं और अहमताओं से अहमताओं का टकाराव विविध प्रकार से होते ही आई। यही मानव परंपरा में संघर्ष का स्रोत रहा है। इसका वर्तमान में साक्ष्य यही है शिक्षा जैसी परंपरा में लाभोन्मादी अर्थशास्त्र, भोगोन्मादी समाजशास्त्र, कामोन्मादी मनोविज्ञान शास्त्र, पठन-पाठन, साहित्य कलाओं में रुचि और विवशताएं है।) अब बंधन से मुक्ति क्रम में समझदारी व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी होना सहज समीचीन है इसलिए आवर्तनशील विधि को जागृतपूर्वक पहचानना संभव हुआ।
जागृति जीवन में ही घटित होना पाया जाता है और प्रमाण-प्रयोजन मानव परंपरा में होना पाया जाता है। जागृति का संपूर्ण स्वरूप जानना-मानना-पहचानना-निर्वाह करना, दूसरे प्रणाली से अनुभवमूलक विधि से अभिव्यक्ति, संप्रेषणा एवं प्रकाशन करना ही है। जानने-मानने की संपूर्ण वस्तु अस्तित्व, अस्तित्व ही सहअस्तित्व, सहअस्तित्व में परमाणु विकास, परमाणु विकास क्रम में गठनपूर्णता (चैतन्य पद) में संक्रमित होना और जीवनी क्रम, जीवन जागृति क्रम, जीवन जागृति (क्रियापूर्णता), जीवन जागृतिपूर्णता (आचरणपूर्णता) और उसकी निरंतरता, रासायनिक-भौतिक रचना विरचना आवर्तनशील और पूरक विधि से अध्ययन करना सहज है।
जीवन ही दृष्टा, कर्ता, भोक्ता पद में होने के कारण अध्ययन करने में समर्थ है। मानव शरीर भी एक रासायनिक, भौतिक रचना है। अस्तित्व ही सहअस्तित्व के रूप में नित्य प्रभावी होने के कारण जीवन और शरीर का संबंध और सहअस्तित्व सहज रूप में देखने को मिलती है। इसी कारणवश शरीर को जीवन्त बनाए रखते हुए जीवन अपने निज ऐश्वर्य को, अर्थात् जागृतिपूर्ण ऐश्वर्य को मानव परंपरा में प्रमाणित करने के क्रम में जीवन क्रियाकलाप प्रमाणित होता है। अस्तु आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा, और अनुभव प्रमाण, जीवन के वैभव है ही, इनमें से आशा, विचार, इच्छाएं, अनुभवपूत होने पर्यन्त भ्रमित रहना देखा गया है। अनुभवपूत होने का तात्पर्य अनुभवमूलक विधि से आशा, विचार, इच्छाओं को शरीर के द्वारा मानव परंपरा में और नैसर्गिक परिवेश में व्यक्त और प्रयोग करने से है। भ्रम का तात्पर्य जो जैसा है उससे अधिक, कम या उस