अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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मानव में, से, के लिए जो कुछ भी कार्य वर्तमान में प्रकाशित संप्रेषित और अभिव्यक्त होता दिखाई पड़ता है यही जागृति के अनंतर उपयोगिता व कला के संयुक्त रूप में, सदुपयोगता पूर्वक पूर्णता को इंगित कराने के प्रमाणों में सार्थक होने के स्वरूप और पूर्ण जागृति (प्रामाणिकता) को वर्तमान में प्रमाणित करने के स्वरूपों में देखना समीचीन है। उपयोगिता, कला का प्रकाशन जीवन सहज आशा, विचार, इच्छा एवं उपयोगिता में अनुकूलता के अनुरूप, स्वरूप प्रदान करने के क्रम में इन अक्षय शक्तियों का नियोजन प्राकृतिक ऐश्वर्य पर स्थापित और सफल हो जाता है। इसी का नाम उत्पादन है। उत्पादन का परिभाषा यही है कि-

  • प्राकृतिक ऐश्वर्य पर कार्य (श्रम) नियोजन पूर्वक उपयोगिता व कला मूल्यों की स्थापना सहित सामान्य आकाँक्षा और महत्वाकाँक्षा के रूप में वस्तुओं को रूप प्रदान करने की क्रिया।
  • मानव द्वारा मानवेत्तर प्रकृति पर उपयोगिता एवं सुन्दरता की स्थापना किया जाना।
  • उपयोगिता मूल्य एवं उत्थान की दिशा में तन, मन और प्राकृतिक ऐश्वर्य में किया गया गुणात्मक परिवर्तन।

उत्पादन कार्य संबंधी परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है मानव अपने कर्ता पद को प्रयोग करने में समर्थ है। सम्पूर्ण कार्य कर्ता पद प्रतिष्ठा सहज वैभव है। प्राकृतिक ऐश्वर्य पर ही श्रम नियोजन पूर्वक उत्पादन का अर्थ सार्थक होना पाया जाता है। इसके साथ मानव के कर्ता पद की महिमा और उसका संयोग ही है कि प्रत्येक मानव में कर्तव्य (करने का प्रमाण) नित्य प्रभावी है अर्थात् नित्य प्रकाशमान है और वर्तमान है।

मानव परंपरा भी एक अनुस्यूत प्रक्रिया है। यह परंपरा मानव शरीर रचना रूपी प्रजनन क्रिया के रूप में परंपरा स्थापित है। यह स्वाभाविक रूप में ही ब्रह्मांडीय वातावरण, नैसर्गिक समृद्धि के योगफल में सम्पन्न हुआ होना देखा गया है। होने का तात्पर्य वर्तमान में प्रमाण ही है। इस विधि से मानव शरीर रचना का स्वरूप प्रणाली प्रजनन के नाम से इंगित होना सर्वविदित है। मानवीयता का आधार जागृत जीवन है। जीवन नित्य चैतन्य क्रिया है। जीवन अपने जागृति को प्रमाणित करने के लिए सुस्पष्ट हो चुका है। अर्थ प्रणाली का प्रयोजन भी हमें स्पष्ट हो चुका है कि शरीर पोषण, संरक्षण और समाज गति के अर्थ में उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनीयता के अर्थ में प्रमाणित होते हैं।