अर्थशास्त्र

by A Nagraj

Back to Books
Page 135

वस्तु और कोष का अलग-अलग कोई स्थान नहीं होता।क्योंकि अस्तित्व में वस्तु और उसका मूल्य अविभाज्य रूप में देखा जाता है। यही विधि/तथ्य सम्पूर्ण उत्पादित वस्तुओं में भी दिखाई पड़ता है। जैसे एक वाहन को छोटा या बड़ा सामने रखकर देखें इसका उपयोगिता मूल्य, सुन्दरता मूल्य और वह वाहन अलग-अलग हो सकता है? इस पर कितना भी सोचा जाए अंत में यह अविभाज्य है। यही मानव जाति से कहना बनता है।

“उत्पादित वस्तुओं में उपयोगिता मूल्य बना ही रहता है।” हर वस्तुओं का उपयोगिता मूल्य और कला मूल्य मानव के श्रम नियोजन का ही फलन है। मूल्यांकन श्रम का ही हो पाता है न कि प्रतीक वस्तुओं का। इस तथ्य पर भी पहले विश्लेषण-निष्कर्ष प्रस्तुत किया जा चुका है। इसी विधि से मानव परंपरा में हर परिवार, हर स्तरीय परिवार स्वाभाविक रूप में समृद्धि, समाधान, अभय और सहअस्तित्व में ओत-प्रोत रहना अथवा यह सर्वसुलभ रहना ही परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था का एक अनिवार्यता है क्योंकि सर्वमानव का यही लक्ष्य है। समृद्धि का आधार आवश्यकता से अधिक उत्पादित वस्तु, सदुपयोग और सुरक्षा के योगफल में होना देखा गया। इसका प्रमाण और उसकी निरंतरता अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था में गति का होना पाया जाता है। अतएव वस्तु और उसका मूल्य स्वाभाविक रूप में अविभाज्य बना रहता है। इसलिए विनिमय-कोष व्यवस्था सुन्दर, सुखद, समाधानपूर्ण मानव मार्ग है।

श्रम मूल्यांकन प्रणाली को पाने के लिए सहज ही हर स्तरीय समीति में अर्हताएँ और समाधानपूर्ण विधि अपनाना सहज है। क्योंकि जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान के योगफल में सर्वतोमुखी समाधान करतलगत रहता ही है। इसी क्षमता के उपयोगवश मूल्यांकन क्रियाकलाप सम्पन्न होता है। इसकी पुष्टि में पहले भी इंगित कराया जा चुका है हर व्यक्ति सत्य में अनुभूत होना चाहता ही है। सच्चाई को प्रमाणित करना चाहता ही है। यह सर्वसुलभ होना समीचीन है क्योंकि जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान मानव सहज रूप में ही स्पष्ट हो पाता है और किसी अन्य प्रकृति के आधार पर इसका प्रमाण स्थापित नहीं हुआ है यथा जीवावस्था, प्राणावस्था और पदार्थावस्था सहज कृतियाँ हर मानव में, से, के लिए दृष्टव्य हैं। इन सबका यथास्थिति परिपूर्ण अध्ययन, इनका अंतर संबंध, इनकी अविभाज्यता क्रम में