अर्थशास्त्र
by A Nagraj
सहज रूप में ही विशेषता, आरक्षण, दलन, दमन जैसी अमानवीय प्रवृत्तियों से मुक्त हो सकते हैं और मानवीयता देव-दिव्य मानवीयतापूर्ण विधि से इस धरती को सजा सकते हैं।
मानवीयतापूर्ण और देव-दिव्य मानवीयतापूर्ण विधि से ही इस धरती में अखण्डता और मानव समाज में अखण्डता और परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में सार्वभौमता को पहचानना, निर्वाह करना सहज है। जिसकी आवश्यकता को हर व्यक्ति स्वीकारता है। अखण्डता और सार्वभौमता की अक्षुण्णता अन्तर्गत् निश्चित गति होना पाया जाता है। यही सर्वशुभ सुलभ होने का सूत्र है। जीवन ज्ञान, जीवन का स्वत्व होते हुए प्रामाणिकता में ही इसका सम्पूर्ण गरिमा और सम्मान होना पाया जाता है। प्रामाणिकता सदा ही सार्वभौमता और अखण्डता के पक्ष में ही हो पाता है। इसे भले प्रकार से हर व्यक्ति परीक्षण-निरीक्षण कर सकता है। दूसरी विधि से यह भी एक निश्चित तथ्य है कि जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ही अपने महिमा को प्रमाणित करने के क्रम में अखण्डता और सार्वभौमता प्रमाणित होना सहज है। इसके अतिरिक्त जो-जो विधियाँ अभी तक प्रयोग में किए गए हैं, उसके अनुसार अखण्डता सार्वभौमता उक्त विधाओं में स्थापित नहीं हो पाया, जिसकी आवश्यकता, अनिवार्यता बना ही है। यह क्रम से परिवार मानव विधि से ग्राम परिवार, विश्व परिवार और उसी के व्यवस्था क्रम में सम्पूर्ण परिवार ही अखण्ड समाज के रूप में, सम्पूर्ण परिवार व्यवस्था क्रम में सम्पूर्ण परिवार ही सार्वभौम व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होता है।
परिवार में आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना लक्ष्य होने के आधार पर विभिन्न उद्यमों को हर परिवार अपनाते हैं। आवश्यकता से अधिक उत्पादन समृद्धि का द्योतक होना पाया जाता है। ऐसा सम्पूर्ण ग्राम परिवार मिलकर ग्राम के आवश्यकीय सभी वस्तुओं को उत्पादन करने के लिए प्रवृत्तशील होते हैं। गाँव के सभी परिवार एक दूसरे के पूरक होते हैं। उत्पादन में पूरक, विनिमय में पूरक और पूरक विधि से ही उपयोग, सदुपयोग करते हैं।