अर्थशास्त्र
by A Nagraj
अध्याय - 8
परिवार मूलक ग्राम स्वराज्य व्यवस्था का स्वरूप
परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था को एक परिवार सभा व्यवस्था से ग्राम परिवार सभा व्यवस्था और विश्व परिवार सभा व्यवस्था का संयुक्त अविभाज्य रूपी अवधारणा और वर्णन विश्लेषण से स्पष्ट हो चुका है। अर्थव्यवस्था समग्र व्यवस्था में अंगभूत है। जिसमें से एक आवर्तनशील अर्थशास्त्र और व्यवस्था है, दूसरा व्यवहारवादी समाज शास्त्र और व्यवस्था और तीसरा मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान व्यवस्था। व्यवस्था का मूल अवधारणा समझदार व्यक्ति में, से, के लिए वर्तमान स्वयं में विश्वास, परिवार में समाधान-समृद्धि, राष्ट्र में अभय और अंतर्राष्ट्र में सहअस्तित्व सहज प्रमाणित होना है। इन प्रमाणों के आधार पर ही विश्व मानव व्यवस्था का स्वरूप सहअस्तित्व सहज अखण्डता सार्वभौमता के आधार पर परिशीलन किया गया है। हर विधाओं में मानव द्रोह-विद्रोह रूपी काला दीवाल के सम्मुख आ चुका है या आने वाला है। इसलिए इसकी समाधान, अखण्डता, सार्वभौमता के अर्थ में और समाधान, समृद्धि, अभयता के अर्थ में ही आवश्यकता, अनिवार्यता समीचीन होना देखा गया। इसी क्रम में इसके लोकव्यापीकरण को और उसकी महत्ता को समझा गया। फलस्वरूप मानव सम्मुख इसे प्रस्तुत करने का प्रयास है।
परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था क्रम में मानव कुल संक्रमित होने के उपरांत अथवा परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था को मानव कुल अपनाने के उपरांत जन प्रतिनिधि को पाने के लिए, पहचानने के लिए और प्रस्तुत होने के लिए अर्थात् जन प्रतिनिधि के प्रस्तुत होने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया और भागदौड़ में धन व्यय शून्य हो जाता है। फलस्वरूप पैसे से पदाभिलाषा का सूत्र समाप्त हो जाता है। पहले से मानव, स्वायत्त मानव और परिवार मानव के रूप में पदस्थ रहते ही हैं। यह स्वयं स्फूर्त आकाँक्षा है ही।
स्वायत्त मानव का स्वरूप, परिवार मानव का स्वरूप के संबंध में अवधारणाएँ स्पष्ट हो चुकी हैं। अतएव परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था का अवधारणा इस ग्रंथ का अध्ययन करने वाले मनीषी को सुलभ हुआ रहता ही है।