अर्थशास्त्र
by A Nagraj
मूलत: अर्थ का स्वरूप तन, मन, धन के रूप में देखा गया है। धन केवल उत्पादित वस्तु ही है। प्राकृतिक ऐश्वर्य पर ही मानव सहज श्रम का नियोजन होना भी सुस्पष्ट हो चुका है। इसी के परिणाम स्वरूप सामान्याकाँक्षा, महत्वाकाँक्षा संबंधी वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं, यही प्रतिफल का स्वरूप है।
श्रम नियोजन का प्रतिफल ही विनिमय के लिए वस्तु है। इन्हीं विनिमय विधि में श्रम मूल्य के आधार पर विनिमय कार्य को सम्पन्न करना आवर्तनशीलता की एक कड़ी है। आशा, विचार, इच्छाएँ निपुणता, कुशलता के रूप में कार्य करना सर्व विदित है। दूसरे विधि से आशा, विचार, इच्छा ही अनुभव मूलक विधि से जीवन ही निपुणता, कुशलता, पाण्डित्य का धारक वाहक हैं। यह सर्वविदित है। यह भी विदित है आशा, विचार, इच्छा के अनुसार ही मानव शरीर संचालन कर पाता है। ऐसी संचालन क्रियाकलाप में ही निश्चित विधि से निश्चित उत्पादन भी होना देखा जाता है। सामान्य आकाँक्षा एवं महत्वाकाँक्षा संबंधी वस्तुओं का उत्पादन कार्य में तत्पर व्यक्ति को देखने से यही दिखाई पड़ता है। जिस वस्तु का उत्पादन होना है उसका आकार, प्रकार उसके मानसिकता में होता ही है। फलस्वरूप उत्पादन कार्य सम्पन्न होता है। इस विधि से निपुणता-कुशलता उत्पादन कार्य के मूल में होना और उसका उपयोगिता, सदुपयोगिता और प्रयोजनशीलता स्पष्ट होता है। आवश्यकता के आधार पर तकनीकी निपुणता, कुशलता और सम्भावनाओं सहित कार्यकलाप सम्पन्न होना देखा गया है। इस क्रम में पीढ़ी से पीढ़ी समृद्धि होता ही आया है। मूलत: विरोधाभास जो कुछ भी निर्मित हुई ईंधन नियोजन, रासायनिक द्रव्यों का नियोजन, उसके उत्पादनों में होने वाली विसर्जन प्रणालियों से विसंगतियाँ निर्मित हुआ, जिसको प्रदूषण के नाम से इंगित करते हैं। दूसरा विसंगति विनिमय प्रणाली में उत्पादक और उपभोक्ता के बीच में दूरी लाभ के रूप में बढ़ता जाना रहा है। इन्हीं दो विसंगतियों के चलते इनसे संबंधित सभी उथल-पुथल होना अर्थात् अवांछित घटनाएँ होना रहा हैं।
उत्पादन कार्य में मानसिकता, स्वस्थ शरीर और हस्तलाघव सहित श्रम नियोजित होता ही है। जहाँ तक साधन की बात है, अर्थात् इसके पहले से जो वस्तुएँ निर्मित हो चुकी हैं, पुन: उत्पादन कार्य के लिए उपयोगी है। यह पीढ़ी से पीढ़ी प्रदत्त होते हुए आया है। इस प्रकार हर पीढ़ी के बाद साधन सम्पन्न होने के क्रम से पीढ़ी से पीढ़ी समृद्ध होना