अर्थशास्त्र
by A Nagraj
अध्याय - 7
जागृति और स्वतंत्रता
मानव का वैभव अथवा परम वैभव सहअस्तित्व में अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित करना ही कर्म स्वतंत्रता का तृप्ति है। यही जीवन जागृति का भी प्रमाण है। इसी का वैभव स्वाभाविक रूप में ही परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था और उसकी निरंतरता परम्परा के रूप में चरितार्थ होना पाया जाता है। ऐसी परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में भागीदारी केवल परिवार मानव सहज अधिकार स्वत्व, स्वतंत्रता के आधार पर वैभव (व्यवस्था) प्रमाणित होता है। तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग-सुरक्षा परिवार मानव विधि से चरितार्थ हो पाता है। चरितार्थता का तात्पर्य मानवीयतापूर्ण चरित्र में ही नैतिकता अर्थात् तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग-सुरक्षात्मक नीति का व्यवहारीकरण पूर्वक प्रमाणित होता है। व्यवहारीकरण स्वरूप को इस प्रकार समझा गया है कि हर व्यक्ति में तन, मन, धन रूपी अर्थ होता ही है। तन और मन के संयोग मानव में नित्य वर्तमान और प्रमाण है। आशा, विचार, इच्छा सहित ही हर प्रकार के कार्य-व्यवहार करता हुआ देखने को मिलता है। ऐसे कार्य-व्यवहार क्रम में ही चरित्र अपने आप में स्पष्ट होता है। मानवीयता पूर्ण चरित्र स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष दयापूर्ण कार्य-व्यवहार होना स्पष्ट किया जा चुका है। दयापूर्ण कार्य-व्यवहार में ही तन, मन, धन का सदुपयोग होना मूल्यांकित होता है। दया की मूल प्रक्रिया ही है जीने देकर जीना। जागृत मानव जीने देकर जीने में प्रमाणित रहता ही है। इसका सहज चरितार्थता परिवार मानव के रूप में ही सम्पन्न हो पाता है। ऐसे परिवार मानव रूपी अधिकार, स्वत्व और स्वतंत्रता का स्रोत अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन ही है। चिंतन का तात्पर्य अनुभव सहज साक्षात्कार से है। साक्षात्कार का तात्पर्य जो जैसा है उसे वैसा ही जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने से ही है। जो जैसा है उसे जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने का प्रमाण स्वयं व्यवस्था में जीना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने के रूप में स्पष्ट होता है। स्वायत्त मानव ही परिवार में व्यवस्था के रूप में जीकर प्रमाणित हो पाता है। यह परिवार व्यवस्था के रूप में ही गण्य होता है। ऐसे परिवार मानव समग्र व्यवस्था में अर्थात् विश्व परिवार व्यवस्था में