अर्थशास्त्र
by A Nagraj
मानव कुल में जीने देकर जीने की प्रवृत्ति चिन्हित रूप में दिखाई पड़ती है और जीवों में अर्थात् जीकर जीने देने की प्रवृत्ति देखने में मिलती है। जैसे बड़ी मछली छोटे मछली को भक्षण करती है। मानव में ही जीने देकर जीना सर्वाधिक सम्भावना, आवश्यकता, उसके लिए पर्याप्त स्रोत जीवन सहज अक्षय बल, अक्षय शक्ति के रूप में विद्यमान है। हर मानव में कर्म करने की स्वतंत्रता जीवन और शरीर के सहअस्तित्व में प्रमाणित होती है। मानव कर्म करते समय स्वतंत्र होने के फलस्वरुप ही स्वयं स्फूर्त कार्य करने का प्रमाण जागृति सहज विधि से सर्व मानव में प्रकाशित है। इसी के साथ कल्पनाशीलता अक्षय रूप में कार्य करता हुआ प्रत्येक मानव में आंकलित है। इनके अतृप्ति वश ही बारंबार परिवर्तन का प्रयास, इच्छा, विचारपूर्वक प्रयोग किया है। इन सभी प्रयोगों का चाहे वह आदिकाल से हो, प्राचीनकाल से हो, अर्वाचीन काल से क्यों न हो और आधुनिक, अत्याधुनिक काल क्यों न हो, इन सभी समय में किया गया सम्पूर्ण क्रियाकलाप का परिणाम वर्तमान में ही आंकलित होना, मूल्यांकित होना देखा जाता है। अत्याधुनिक कहलाने वाले सीमा में किए गए क्रियाकलापों के उपरांत भी पुनः परिवर्तन की अपेक्षा बेहतरीन जिंदगी की अपेक्षा सार्वभौम शुभ की स्वीकृति के साथ-साथ आज भी मूल्यांकित होता है। इसलिए सार्वभौम व्यवस्था अखण्ड समाज की ओर ज्ञान, दर्शन, विचार, शास्त्र और योजना की ओर अनुसंधान, अध्ययन आवश्यक होना पाया जाता है।
परिवर्तन के क्रम में ही मूल्य मूलक, लक्ष्य मूलक विधि से जीने की कला, विचारशैली और अनुभव बल के साथ जीना मानव संस्कारानुषंगीय इकाई होने का प्रमाण है। संस्कार मूलत: पूर्णता और उसकी निरंतरता के अर्थ में किया गया सम्पूर्ण कार्यकलाप विचार विविध दर्शन और ज्ञान सहज प्रामाणिकताएँ हैं। ज्ञान और दर्शन विधाओं में पारंगत और प्रमाणित होना अनुभवमूलक विधि से ही होता है। अनुभव क्षमता प्रत्येक मानव में होने वाले जीवन सहज कार्यकलापों में से सर्वोपरि वैभव है।
सर्वशुभ समझदारी से ही है।