अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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नारा ही हाथ लगा रहेगा अथवा सभी मानव मन में घर किया रहेगा। फलस्वरूप शुभ के स्थान पर अशुभ घटनाएँ दुहराते ही रहेगा। इस ढंग से परम्परा भ्रमित रहने के आधार पर मानव अपने में से जागृत होने का रास्ता समाप्त प्राय होता है। यह सब स्थितियाँ रहते हुए भी कोई न काई मानव चिंतन को आगे बढ़ाने, विकल्प को प्रस्तुत करने का यत्न-प्रयत्न करता है। इसका प्रमाण यही है आदर्शवाद का विकल्प भौतिकवाद के रूप में आयी। आदर्शवाद और भौतिकवाद का मूल तत्व व्यवस्था के रूप में शक्ति केन्द्रित शासन ही रहा है। अतएव इन दोनों के विकल्प के रूप में अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन ही सहअस्तित्ववादी, सर्वतोमुखी समाधानपूर्ण व्यवस्था को अध्ययनगम्य होने के लिए प्रस्तुत है और मानवीयतापूर्ण आचार संहिता रूपी संविधान को समाधान केन्द्रित व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अतएव कर्मों के आधार पर मानव का विविधताएँ पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क शक्ति केन्द्रित शासन में भागीदारी, रहस्यमूलक, लक्षणात्मक धर्म संविधान वह भी शक्ति केन्द्रित विधि से कल्पित ढांचा-खांचा में भागीदारी, व्यापार जैसा शोषण में भागीदारी, भ्रमात्मक साहित्य कला में भागीदारी, भ्रमात्मक आस्थाओं में भागीदारी, लाभोन्मादी उत्पादन कार्यों में भागीदारियों के आधार पर पाप-पुण्य का व्याख्या करते रहे हैं। इसी के साथ-साथ रहस्य में छुपी हुई सत्य, ईश्वर, ब्रह्म, आत्मा, परमात्मा, देवी-देवता जैसी कल्पनाओं में प्रमाणित होने के लिए प्रकल्पित भांति-भांति साधना, अभ्यास, योग, यज्ञ, जप, तप, पूजा, पाठ, प्रार्थना, गायन क्रियाकलापों को भक्ति और विरक्ति के परिकल्पित रेखा सहित किए जाने वाले जितने भी कार्यकलाप हैं, ये सबको पुण्यशील कर्म मान लिया गया है। जानने की क्रिया अभी तक शेष है। इसी के साथ यह भी निर्देशन अथवा इंगित तथ्य यही है ऐसी पुण्यशीलों के सेवा-सुश्रुषा, अपर्ण-समपर्ण से भी पुण्य मिलेगा और पुण्यशीलों से पुण्य बंटती है, ऐसे उल्लेख और आश्वासनों को पूर्वावर्ती शास्त्र, धर्मशास्त्र परिकथाओं में उल्लेख किया है।

यहाँ ध्यानाकर्षण का तथ्य यह है कि सहअस्तित्व ही परम सत्य है। अस्तित्व स्वयं में व्यापक सत्ता में संपृक्त प्रकृति है। अस्तित्व ही सहअस्तित्व के रूप में नित्य वैभव है। सहअस्तित्व में ही नित्य समाधान है। यह सम्पूर्ण ज्ञान और दर्शन इन बिन्दुओं पर देखा गया है सहअस्तित्व में जीवन ज्ञान, और सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान। इसी के फलस्वरूप मानवीयतापूर्ण आचरण सर्वसुलभ होना, दूसरे भाषा में चेतना विकास मूल्य