अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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शिक्षा संस्कारपूर्वक लोकव्यापीकरण होना सहज है। जीवन ज्ञान के पश्चात् प्रत्येक मानव जीवन का अमरता को, नित्यता को पहचान पाता है। फलस्वरूप जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव परंपरा को होना प्रमाणित हो जाता है। इसी क्रम में शरीर रचना भौतिक-रासायनिक द्रव्यों से सम्पन्न होना देखा जाता है। इसी आधार पर शरीर की भंगुरता अथवा विरचना स्वीकृत हो जाता है। और जीवन ही दृष्टा, कर्ता, भोक्ता होने का तथ्य हर मानव में सुदृढ़ होता है। फलस्वरूप सर्वतोमुखी समाधान स्रोत और कारण जागृत जीवन ही होना स्पष्ट होता है अथवा सर्वतोमुखी समाधान का धारक वाहक जीवन ही होना स्पष्ट हो जाता है। यह सर्वसुलभ होना ही जागृत परंपरा का द्योतक है। इस प्रकार जीवन की नित्यता समझ में आने के फलस्वरूप शरीर को छोड़कर जीवन ही अपने स्वरूप में देवी-देवता, भूत-प्रेत आदि नामों से जाने जायेंगे। यह देवी-देवता संबंधी रहस्य उन्मूलन होने का सहज विधि फलस्वरूप तत्सम्बन्धी भ्रम से मुक्त होने का सुख स्वाभाविक रूप में समीचीन है। मानव सहज रूप में रहस्य से मुक्त होने की अभिलाषाएँ होना पाया जाता है।

सत्तामयता में ही सम्पृक्त प्रकृति डूबा, भीगा और घिरा हुआ है। यह अविभाज्य रूप में नित्य वर्तमान है। यही परम सत्य सहज स्वरूप है। सत्तामयता व्यापक, पारगामी, पारदर्शी के रूप में नित्य विद्यमान है। यही ब्रह्म, ईश्वर, शून्य, असीम अवकाश, विस्तार आदि नामों से भी इंगित होता है। यह वस्तु सर्वत्र समान रूप में विद्यमान होना दिखाई पड़ती है। यह हर परस्परता में, एक-एक के परस्परता के मध्य में, और प्रत्येक एक के सभी ओर दिखाई पड़ती है। यह नित्य सत्ता संबंधी रहस्य और भ्रम समाप्त होना पाया जाता है। अतएव अस्तित्व स्वयं में नित्य वर्तमान, विद्यमान, विकास, जागृति, रचना, विरचना के रूपों में दृष्टव्य है। अस्तित्व में दृष्टा पद में जागृत जीवन ही है। सत्ता व्यापक पद में, प्रकृति चार पद में दृष्टव्य है। इन सबका दृष्टा जागृत जीवन पूर्वक जीने वाला मानव ही है। अस्तु हर मानव जागृत परंपरा में अर्पित होकर स्वयं जागृत होना स्वाभाविक है। परंपरा जब तक भ्रमित रहेगी तब तक परंपरा में अर्पित हर मानव संतान भ्रमित रहेगा ही।

हर परंपराएँ शिक्षा विधा में, संस्कार विधा में, संविधान विधा में और व्यवस्था विधा में अपने को निर्भय अथवा श्रेष्ठ मानते हुए चलते हैं जबकि ऐसा हुआ नहीं रहता है। इसका