अर्थशास्त्र
by A Nagraj
वासियों बनाम परिवारों में, से, के लिए उक्त चारों प्रकार का शुभ बहने लगती है। इससे यह भी पता लगता है, शुभ रूप में ही नित्य वैभव एवं गति है। इसके विपरीत भ्रमित प्रयास कुण्ठित, निराशित, प्रताड़ित होना अवश्यंभावी है। यह घटना पूर्वावर्ती भ्रमित परम्पराओं के चलते मानव जाति भुगत गया है।
यह समीक्षा उक्त प्रकार से शुभ की स्थिति-गति क्रम विश्व परिवार तक संभाव्य है और आवश्यकता भी है। तभी इस धरती का संतुलन विधि, सहअस्तित्व विधि, अखण्ड समाज विधि, सार्वभौम व्यवस्था विधि, उक्त शुभ परंपरा में सार्थक होना स्पष्टतया विदित होता है।
परिवार और व्यवस्था अविभाज्य है। परिवार हो, व्यवस्था नहीं हो और व्यवस्था हो परिवार नहीं हो, ये दोनों स्थितियाँ भ्रम का द्योतक है। पूर्वावर्ती आदर्शवादी और भौतिकवादी विचारों के आधार पर सभी शक्ति केन्द्रित शासन अवधारणाएँ परिवार के साथ सूत्रित होना संभव नहीं हो पाई। हर परिवार में कुछ संख्यात्मक व्यक्तियों को और उनके परस्परता में सेवा, आज्ञा पालन, वचनबद्धता को पालन करता हुआ, निर्वाह किया हुआ भी उल्लेखित है, दृष्टव्य है। इनमें श्रेष्ठता की ऊचाइयाँ भी उल्लेखों में दिखाई पड़ती है। साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इनमें से किसी आदर्श का गति अनेक नहीं हो पायी। यही बिन्दु में हम और एक तथ्य पर नजर डाल सकते हैं। बहुतायत रूप में अच्छे आदमी हुए हैं और अच्छी परम्परा नहीं हो पायी। क्योंकि जबसे मानव समुदायों में राज्य और धर्म की दावा समायी है तब से अभी तक शक्ति केन्द्रित शासन ही रहा है। इसकी गवाहियाँ धर्म संविधान और राज्य संविधान ही है। ऐसे धर्म और राज्य संविधान की मंशा के बारे में हम पहले से स्पष्ट हो चुके हैं। इन दोनों प्रकार संविधानों के प्रभावित रहते भय और प्रलोभन का ही प्रचार होना समीचीन प्रवर्तन रहा है। कला, साहित्य, शास्त्र, विचार, दर्शन सभी भय और प्रलोभन से भरे पड़े हैं अथवा इसी के परस्त होकर बैठ गए हैं। इन स्मरणों के साथ साथ उल्लेखनीय तथ्य इतना ही है कि इस धरती पर स्थित मानव परंपरा में भय और प्रलोभन के रहते, इस धरती का संतुलन-ज्ञान सम्पन्न होना, मानव द्वेष विहीन अथवा राग द्वेष विहीन परिवार का होना, अखण्ड समाज होना, सार्वभौम व्यवस्था होना सर्वथा संभव नहीं है। इसके स्थान पर इसी के पीछे विद्वता का परिकल्पना ज्ञान-रसायन, कर्मों का दुहाई, पाप-पुण्य का