मानवीय संविधान

by A Nagraj

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मानव विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति और उसकी निरंतरता का ज्ञाता, दृष्टा, कर्ता होता है। संचेतना का स्वरूप संज्ञानीयता पूर्वक नियंत्रित संवेदनाओं सहित वैभव है।

जागृत मानव ही व्यापक सत्ता में सम्पृक्त जड़ चैतन्य प्रकृति को सहअस्तित्व के रूप में जानता, मानता, पहचानता और निर्वाह करता है।

न्याय, धर्म (सर्वतोमुखी समाधान) और सत्ता में सम्पृक्त जड़-चैतन्य रूपी सहअस्तित्व परम सत्य जागृत मानव में, से, के लिए प्रमाण है।

जागृत मानव सहअस्तित्व में ही विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति परम का ज्ञाता, दृष्टा, कर्ता, भोक्ता होता है, यह समाधान है।

मानव

“जीवन बल व शक्तियाँ अक्षय है” जिस से जागृत मानव जानता, मानता, पहचानता और निर्वाह करता है।

हर मानव जीवन व शरीर का संयुक्त रूप में परंपरा (पीढ़ी से पीढ़ी के रूप में) में विद्यमान है।

शरीर गर्भाशय में भौतिक-रासायनिक द्रव्यों से रचित रहता है। जीवन गठनपूर्ण परमाणु चैतन्य पद में जागृति पूर्वक वैभव है।

जीवन इकाई, विकसित परमाणु, जीवन पद में गठनपूर्ण घटना के आधार पर अणु बंधन, भार बंधन से मुक्त, आशा विचार इच्छा बंधन युक्त है। जीवन जब जागृत हो जाता है तब जीवन अमर वस्तु के रूप में स्वीकृत होता है और जीवन शक्ति व बल अक्षय होना समझ में आता है।

जागृत जीवन क्रियायें :-

अक्षय बल अक्षय शक्तियाँ

सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में आत्म शक्ति प्रमाणिकता में प्रमाण,

अनुभव होता है। प्रमाणित करने के लिए संकल्प शक्ति