मानवीय संविधान

by A Nagraj

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व्यापक में ही सभी एक-एक वस्तुओं की परस्परता और निश्चित अच्छी दूरियाँ स्पष्ट है। व्यापक में प्रकृति न हो ऐसा कोई काल नहीं। व्यापक न हो ऐसा कोई देश काल नहीं है।

सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है। व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक-एक वस्तुएं परस्परता में ही पहचान है। एक दूसरे की पहचान ही संबंध और व्यवस्था का आधार है।

4.7 (3) राज्य

राज्य वैभव सहज रूप में हर अवस्था, हर पद, स्थिति गति के रूप में सहअस्तित्व में ही विद्यमान है। मानव जागृति पूर्वक अखण्डता सार्वभौमता सहज परंपरा के रूप में होना राज्य है।

पदार्थावस्था, प्राणावस्था में प्रत्येक विकास क्रम यथास्थिति सहज विधि से पूरकता-उपयोगिता पूर्वक वैभव है।

उपर्युक्त दोनों अवस्थायें समृद्ध रहने के उपरान्त ही जीवावस्था का उदय होता है। जीवावस्था में वंश परंपरा के रूप में प्रत्येक एक अपनी यथास्थिति उपयोगिता को प्रमाणित किये रहते हैं और वैभवित रहते हैं।

उक्त तीनों अवस्थायें समृद्धि सम्पन्न रहने के अनन्तर ही ज्ञानावस्था का उदय होना स्वाभाविक रहा। मानव मानवत्व सहित व्यवस्था होता है। यही मानव सहज वैभव है, मानव समझदारी पूर्वक ही अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करना सहज है।

4.7 (4) स्वराज्य

स्वराज्य ज्ञान, विवेक, विज्ञान सम्पन्नता सहित अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में, से, के लिये स्वयं स्फूर्त अर्थात् समझदारी के ही फलस्वरूप भागीदारी करना ही है।

स्वराज्य =

समझदारी ईमानदारी जिम्मेदारी (भागीदारी)

अस्तित्व मूलक विवेक सम्मत संबंध सहज