मानवीय संविधान

by A Nagraj

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  • परमाणु में गठनपूर्णता ही चैतन्य इकाई जीवन (जीवन पद); जीवन में क्रियापूर्णता व आचरणपूर्णता (केवल जागृत मानव परंपरा में प्रमाण)।
  • जीवन घटना व शरीर रचनाक्रम नियति सहज प्रकटन।
  • जागृत मानव सहज अभिव्यक्ति सम्प्रेषणा।

स्पष्टीकरण – जीव परंपरा में जीवन जीव चेतना को (चार विषयों के साथ में) विभिन्न वंश परंपरा के रूप में प्रकाशित किया है।

जागृत मानव परंपरा में ही संज्ञानीयता में नियंत्रित संवेदना, मानवत्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज प्रमाण परंपरा है।

जागृत मानव में ही संज्ञानीयता पूर्वक संवेदनायें नियंत्रित रहती है। यही स्व नियंत्रित आचरण सहज कार्य-व्यवहार ही संविधान पूर्णता के अर्थ में विधान है।

सहअस्तित्व

संग्रह, शोषण के स्थान पर उपयोगिता-पूरकता, अव्यवस्था के स्थान पर व्यवस्था, संग्रह के स्थान पर समृद्धि के लिये प्रेरणा है। अब तक प्रत्येक शक्ति केन्द्रित शासन संविधान व्यवस्थाओं में संग्रह, शोषण विधि से मानवीयता फलीभूत नहीं हो पायी। उपयोगिता-पूरकता, समृद्धि व समाधान सहित व्यवस्था सहअस्तित्व में ही फलीभूत होता है। अब तक नस्ल, रंग, जाति, संप्रदाय, वर्ग, धर्म कहलाने वाले मत-मतान्तर अथवा मतभेदों से भरे हुये धर्म, पंथ, भाषा या देश के आधार पर ‘त्व’ सहित मानव को पहचाना नहीं जा सका है। जिसकी आवश्यकता है।

मानवत्व सहित मानव स्वयं व्यवस्था है यही सर्वतोमुखी समाधान, सुख, परम सौन्दर्य शुभ और मानव धर्म है। अस्तित्व स्वयं किसी के लिये बाधा नहीं होता है। अस्तित्व में मानवीयतापूर्ण विधि से किसी की बाधा अथवा हस्तक्षेप कभी नहीं होता है। अस्तित्व निरंतर सामरस्यता है, इसलिए अस्तित्व ही परम सत्य है। अस्तित्व में कोई ऐसी चीज नहीं है जो पैदा होती हो अथवा जो है वह मिट जाती हो। यह दोनों क्रियायें अस्तित्व में नहीं है। अस्तित्व में मात्रात्मक परिणाम गुणात्मक परिवर्तन की परंपरा है, यह विकास क्रम में दृष्टव्य है। विकास व जागृति मानव में प्रमाणित होना स्पष्ट है। “अस्तित्व न घटता है न बढ़ता है।”