मानवीय संविधान
by A Nagraj
धरती अखण्ड होने के अर्थ में धरती पर ही चारों अवस्थाओं का वैभव, धरती पर मानव अखण्ड समाज राष्ट्र के अर्थ में होना रहना नित्य वैभव।
स्पष्टीकरण - जागृत मानव अखण्डता सहज सूत्र व्याख्या सहित प्रमाण है। बहु प्रकार की विभिन्न वंश के रूप में जीव-परंपरायें, प्राणावस्था में अन्न-वन वनस्पतियों की परंपराएँ बीज-वृक्ष विधि सहज रूप में, भौतिक रूप में खनिज वस्तुओं की परंपरा परिणाम के आधार पर एवं संतोषजनक संतुलन में शीतोष्ण-वर्षामान परंपरा सहज वैभव है।
राष्ट्रीयता
- जागृत मानव परंपरा ही मानवीयतापूर्ण आचरण परंपरा।
- ‘त्व’ (मानवीयता सहज निश्चित आचरण) सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी।
स्पष्टीकरण – रासायनिक भौतिक क्रियाकलाप और मानवेत्तर जीव संसार नियम, नियंत्रण, संतुलन पूर्वक ‘त्व’ सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में पूरकता-उपयोगिता विधि से भागीदारी करता हुआ स्पष्ट है, जिसकी गवाही तीनों अवस्था में है। तीनों अवस्थायें सहअस्तित्व में वैभवित होने के उपरान्त ही मानव शरीर रचना सहित जीवन के संयुक्त रूप में मानव का प्रकटन इस धरती पर हुआ है। आज उक्त तीनों अवस्थायें पूरक विधि से संतुलित रहते हुए प्रवर्तनशील है। यही मानव व मानवत्व सहित अखण्ड समाज व्यवस्था व समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज वर्तमान होना, राष्ट्रीयता अर्थात् धरती वैभवित रहने का सूत्र व्याख्या व स्वरूप में वर्तमान होना आवश्यक है। भौतिक-रासायनिक ईकाइयाँ और सभी प्रकार के जीव अपने-अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था के रूप में वर्तमान है। ‘स्व’ होने के रूप में ‘त्व’ रहने (प्रमाणित) के रूप में वर्तमान आचरण रूप में प्रमाण और नियम सहित वर्तमान है।
अनुभव
अनुक्रम सहज अभिव्यक्ति, सम्प्रेषणा, प्रकाशन सहअस्तित्व में, से, के लिए प्रमाण वर्तमान।