मानवीय संविधान

by A Nagraj

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  • में संपूर्ण एक-एक वस्तु (जड़-चैतन्य) सम्पृक्त है जिसका दृष्टा जागृत मानव ही है।
  • अविनाशिता (नित्यता) सहअस्तित्व रूप में सदा वर्तमान ही है। सहअस्तित्व में ही विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति पद अथवा पदों के रूप में स्पष्ट है।
  • खनिज, वनस्पति व जीव संसार ऋतु संतुलन के अर्थ में प्राकृतिक नियम और इनकी परस्परता में पूरक, उपयोगिता नियम वर्तमान है इन तीनों स्वरूपों में विद्यमान सभी इकाइयाँ त्व सहित व्यवस्था व समग्र व्यवस्था में भागीदारी नियम सहज वर्तमान यही पूरकता विधि है।
  • पूरक विधि से ही उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनीयता जागृत मानव परंपरा में, से, के लिए नित्य वैभव रुप में वर्तमान है।
  • हर मानव में, से, के लिए जागृति जीवन लक्ष्य सहज प्रमाण व्यवस्था है। मानवत्व अनुभव अनुभवमूलक विधिपूर्वक सफल हैं।
  • व्यापक वस्तु पारदर्शी, पारगामी, साम्य ऊर्जा सहज सत्ता, स्थिति पूर्ण सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति स्थितिशील है यही भौतिक-रासायनिक और जीवन इकाईयों में बलसम्पन्न क्रियाशील, परिणामशील, विकास क्रमशील, विकास, जागृतिशील, जागृति व जागृतिपूर्ण अवस्था व पदों में नित्य वर्तमान होना सहज है।
  • भौतिक, रासायनिक व जीवन क्रिया पद भेद से अर्थ भेद होना प्रमाणित है।
  • क्रियाशीलता ही आचरण के रूप में स्पष्ट है।
  • श्रम, गति और परिणाम और परिणाम का अमरत्व, श्रम का विश्राम, गति का गन्तव्य के रूप में सम्पूर्ण क्रियायें स्पष्ट हैं।
  • सम्पूर्ण क्रियायें सहअस्तित्व में, से, के लिए ही है।
  • अवस्था व पद भेद से आचरण भेद है। जो यथास्थिति सहज वर्तमान है।
  • अस्तित्व में प्राणपद, भ्रान्तिपद, देवपद और दिव्यपद प्रसिद्ध है।

प्राणपद में पदार्थावस्था से प्राणावस्था विकास व प्राणावस्था से पदार्थावस्था ह्रास क्रम में पूरकता-उपयोगिता विधि से वैभव है।