मानवीय संविधान

by A Nagraj

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भौतिक वादी विज्ञान के अनुसार अव्यवस्था की नजरिया से अस्थिरता और अनिश्चितता की ओर गति हुई है। फलस्वरूप व्यापार के चंगुल में सारा मानव अथवा सर्वाधिक मानव फंस चुके हैं। बाजार लाभ के चंगुल में फंसा ही है। व्यापार शोषण क्रिया का नाम है। शोषण के साथ अपना-पराया की दीवाल बनी ही रहती है। व्यापारी भी जिसके साथ अपनत्व होता और संबंधों की पहचान होती है उनके साथ व्यापार नहीं कर पाता है।

सहअस्तित्ववादी विधि से यह समझ में आता है कि परमाणु में ही विकास क्रम, विकास होता है क्योंकि भौतिक-रासायनिक व जीवन क्रियाकलाप के मूल में परमाणु ही आधार वस्तु, आधार है। परमाणु में निहित कार्यरत अंशों की संख्या भेद से आचरण भेद होता है जिसके कारण मृदु, पाषाण, मणि, धातु दृष्टव्य है। यही परमाणु-अणु की विविध स्थितियाँ यौगिक क्रिया के लिए प्रवृत्त, कार्यरत व फलित रहना है।

यौगिक क्रिया विधि से सम्पूर्ण रसायन तंत्र क्रम से धरती पर हरियाली सबको समझ में आता है। रासायनोत्सव के रूप में प्राण कोशाओं से रचित रचनायें धरती पर हरियाली के रूप में है और प्राण कोशाओं से ही जीव शरीर व मानव शरीर भी रचित है जिसकी विरचना निश्चित होना भी सर्वविदित है। समृद्ध मेधस से सम्पन्न जीव शरीरों को भी जीवन संचालित करता है जबकि प्रत्येक मानव शरीर को जीवन ही संचालित करता है।

जीवन क्रिया गठनपूर्ण परमाणु के रूप में वर्तमान रहता है। यही चैतन्य इकाई व जीवन है। हर मानव ‘जीवन’ व शरीर का संयुक्त रूप है। यह सहअस्तित्व सहज वैभव है। जीवन ही आशा जीने की आशा प्रमाण सहज आशा तक, विचार संवेदनात्मक से संज्ञानीयता तक, इच्छाएं संवेदनायें चिंतन से संज्ञानीयतात्मक चित्रण तक, ऋतम्भरा (सत्य सम्पन्न प्रमाणित करने का प्रवृत्ति) रूप में प्रमाण, सहअस्तित्व में अनुभव मूलक क्रम से सम्पन्न होना समझ में आता है। यही जागृत जीवन वैभव होना पाया जाता है और जागृत जीवन में अनुभव बल अनुभव का बोध बल, बोध का चिंतन साक्षात्कार बल, साक्षात्कार का तुलन बल और न्याय-धर्म-सत्य सहज आस्वादन बल जीवन वैभव है। जागृत जीवन की पहचान हर मानव कर सकता है, करने योग्य है फलस्वरूप व्यवस्था में सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्नता में प्रमाणित होता है।