मानवीय संविधान

by A Nagraj

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हर देश काल में परंपरा के रूप में चल रही सभी भाषायें शब्द व भाव (नाम) के रूप में है। मानव ने संवेदनाओं को नाम से उच्चारणों को भाषा माना है। जानने के लिए शब्दों द्वारा इंगित अर्थ ही है। शब्दों का अर्थ किसी वस्तु-क्रिया, फल-परिणाम, स्थिति-गति का नाम ही है। नाम सहज स्वीकृतियाँ मानव में, से, के लिये होना दृष्टव्य है। इन स्वीकृतियों के मूल में मानव सहज कल्पनाशीलता कर्म स्वतंत्रता का प्रयोजन है ही।

विगत से सुनने में आ रहा शुभ-कल्याण, उद्धार-मोक्ष, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक संबंधी उपदेश सर्वाधिक रहस्यमय रहे हैं। पाप-पुण्य को रहस्यमय ईश्वर की तृप्ति और अनुग्रह से जोड़ा गया है। इनके विविध रूप हैं जो मानव की सामुदायिक मानसिकता के स्पष्ट कारण ही है।

समुदायों की परिकल्पना से सभी समुदायों में परस्पर द्रोह-विद्रोह, शोषण, युद्ध और संघर्ष की प्रवृत्तियाँ प्रबल हुई जो घटना क्रम में स्पष्ट है। आज जब भौतिक-विज्ञान सभी देशों में फैला हुआ है फिर भी इस इक्कीसवीं सदी तक प्रचलित विज्ञान विधि से कोई मानव अध्ययन समाधान सूत्र लोकगम्य नहीं हो पाया है। इसलिए विज्ञान के मुद्दे पर भी पुनर्विचार करना आवश्यक हो गया है।

प्रचलित विज्ञान में तकनीकी एवं ज्ञान का सम्मलित रूप में होना माना गया है जिसमें तकनीकी भाग यंत्र वस्तुओं के निर्माण व उपज के रूप में इसमें नियोजित होने वाली कारीगिरी तकनीकी है जिसमें प्राणावस्था से सम्बन्धित सभी तकनीकी उपज ज्ञान के अर्थ में सदा से रहा है। जैसे कृषि उपजाने और पशुपालन के रूप में पहचाना गया है।

माटी, पत्थर, धातु, मणि, काष्ठों से औजार-वस्तुएं, वस्तु-यंत्र-उपकरण बनाने की क्रिया को तकनीकी कहा जाता है। दूसरे शब्दों में आहार, आवास, अलंकार, दूरगमन, दूरश्रवण, दूरदर्शन संबंधी वस्तु-यंत्र उपकरणों के उत्पादनों में जो श्रम नियोजन होता है उस तौर तरीके को तकनीकी कहा जाता है। ऐसे प्रयोजनार्थ विद्वानों द्वारा प्रस्तावित ज्ञान मूल में ही गलत हो गया क्योंकि उन्होंने अस्तित्व को मूलत: अस्थिर होना माना है। यह सच्चाई के विपरीत हो गया। इस मुद्दे पर सोच-विचार पूर्वक जाँचने पर पता चला कि अस्तित्व सहअस्तित्व रूप में स्थिर, विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति निश्चित होना पाया है। यही ‘अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन’ - ‘मध्यस्थ दर्शन’ ‘सहअस्तित्व वाद’ है।