मानवीय संविधान
by A Nagraj
भले बदले पर शिक्षा संस्थाओं से लेकर अन्य संस्थाओं का लोक व्यापीकरण होना अवश्यंभावी है। नस्ल, जाति, रंग, भाषा भेद धर्मगद्दियों या राजगद्दियों में समाये हुए हैं। इस तरह हर नर-नारी किसी न किसी राज-धर्म-शिक्षा गद्दी परस्त होना पाया जाता है। इस 21वीं शताब्दी के आरंभ काल तक सभी राज्य शक्ति केन्द्रित शासन परंपरा में होना पाया जाता है। भौतिकवाद परस्त विज्ञान शिक्षा ही सम्पूर्ण देशों में प्रकारान्तर से पहुँच चुकी है। ऐसी विज्ञान शिक्षा सम्पन्न सर्वाधिक नर-नारी धन, साधन को प्रधान मानते हैं।
धन का स्वरूप प्रतीक मुद्रा के रूप में मान्य है। मानने में एवं होने में दूरी इतनी ही है कि ‘मान्यतायें कल्पना प्रधान वाली होती है’ और ‘होना निरंतर प्रमाण है’ जो पीढ़ी से पीढ़ी लोगों को बोध स्वीकृति व प्रमाण होता है। सम्पूर्ण अस्तित्व सहअस्तित्व रूप में ही नित्य विद्यमान है। यह सर्व मानव में, से, के लिये अनुभव मूलक विधि से अनुभवगामी पद्धतिपूर्वक बोध सुलभ होता है। यही मूलत: सार्थक अध्ययन सूत्र है। मानवत्व त्व रूपी आचरण ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्मत सूत्र व्याख्या है।
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मानवीयतापूर्ण आचरण ही संविधान सूत्र व्याख्या है
मानव जागृति पूर्वक ही मानवीयतापूर्ण आचरण सहित अभिव्यक्ति, सम्प्रेषणा, प्रकाशन है। सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व अनुभव मूलक विधि से समझ में आना ही जागृति है। यह प्रमाण विधि से परंपरा है। हर मानव में समझने की प्रवृत्ति सहज विधि से निहित है। जीवन व शरीर का संयुक्त रूप में ही हर मानव विद्यमान है। हर नर-नारी का सहज समझदारी सम्पन्न होना ही जागृत चेतना और यही मानव चेतना जागृति है।
जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ही जागृति, चेतना-जागृति अथवा समझदारी है। नामकरण करना मानव परंपरा सहज मौलिक प्रकाशन है। इसका साक्ष्य इस धरती पर मानव में विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में पनपती भाषा शब्द के रूप में सुनने को मिलता है। सभी भाषायें शब्दों के रूप में सुनने को मिलती है। यह सर्वविदित है। अर्थ नाम से नामी समझ में आता है।