मानवीय संविधान

by A Nagraj

Back to Books
Page 187

उपरोक्त अपेक्षायें सर्वशुभ के अर्थ में प्रमाणित होना ही जागृति सहज वैभव है। जागृति ज्ञान, विवेक, विज्ञान सहज संयुक्त वैभव है। यह हर नर-नारी में, से, के लिए स्वत्व स्वतंत्रता अधिकार है।

समझदारी हर मानव में, से, के लिए अविभाज्य वर्तमान है। हर मानव परंपरा के रूप में वर्तमान होना सर्वविदित है। इसी आधार पर हर मानव जागृत अथवा भ्रमित रहना पाया जाता है। हर नर-नारी सहज चाहत जागृति है। जागृति परंपरा सहज विधि से ही सर्व सुलभ होता है।

सर्वमानव में कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता आदिमानव काल से प्रकाशित रहा है। इसका साक्ष्य यही है कि आहार, आवास, अलंकार पद्धतियों को विविध रूप में अपनाया और दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन साधनों में विविधता का होना स्पष्ट है। उक्त क्रिया प्रवृत्ति एवं घटना के अनुसार स्पष्ट है कि सभी देशकाल में मानव ने कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता का सतत प्रयोग प्रस्तुत किया है।

सर्व मानव कल्पनाशीलता के लिये कर्म स्वतंत्रता का और कर्म स्वतंत्रता के लिए कल्पनाशीलता का प्रयोग करते आया है। आदिमानव काल से इक्कीसवीं (21वीं) शताब्दी तक मानव परंपरा विविध समुदायों के नाम से प्रचलित रही जो राज्य व राष्ट्र कहलाते रहे।

राज्य-राष्ट्र की अस्मिता, स्वीकृति व मान्यता में अखण्डता, सार्वभौमता व अक्षुण्णता सहज पावन शब्दों को दुहराया जाता है। यह भी देखने को मिलता है कि अधिकांश देशों की भौगोलिक स्थितियाँ व उनमें निवास करने वाले लोगों की जनसंख्या बदलती रही। ऐसे बदलाव के मूल में मानव सहज कल्पनाओं की विविधता का होना ही समझ में आता है।

मानव समुदाय रूप में इक्कीसवीं शताब्दी तक नस्ल, रंग, भाषा, जाति, मत, पंथ, सम्प्रदाय, वर्ग रूप में परस्पर पहचान होना पाया जाता है। नस्ल-रंग जंगल युग से, भाषा-जाति ग्राम युग से, मत-पंथ सम्प्रदाय धार्मिक राजनीतिक युग से, वर्ग आर्थिक राजनीतिक युग से गण्य हुआ है। इस शताब्दी के आरंभ तक इस धरती के सर्वाधिक देश जिनका अपना अपना संविधान है आर्थिक-राजनीति परस्त हो चुके है।