मानवीय संविधान
by A Nagraj
- मणि-धातु के ठोस व विरल रूप को जानना, मानना, पहचानना व निर्वाह करने में पारंगत होना न्याय है।
- मानव, देवमानव देवपद में, दिव्यमानव दिव्यपद में, भ्रान्त मानव और जीवों को जीवनी क्रम में, प्राणावस्था व पदार्थावस्था को प्राणपद में जानना, मानना, पहचानना व निर्वाह करना न्याय है।
दायित्व
मानवीय शिक्षा स्वीकृति अर्थात् सहअस्तित्व तथ्य को सहज रूप में जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करने के रूप में दायित्व होना न्याय है।
स्वीकृतियाँ जानने व मानने के रूप में, सोच-विचार-निर्णय विवेक-विज्ञान के रूप में, आचरण (कार्य-व्यवहार) मानवीयता के रूप में पहचान-निर्वाह के रूप में, व्यवस्था स्वयं स्फूर्त कर्त्तव्य-दायित्व रूप में, संस्कृति उत्सव के रूप में, स्वीकृतियाँ जागृत समाज परस्पर अर्पण समर्पण के रूप में, सभ्यता व्यवस्था में भागीदारी के रूप में, संविधान आचरण के अर्थ में, व्यवस्था सार्वभौमता (सर्व शुभ व स्वीकृति) के रूप में न्याय है।
उत्पादन कार्य व्यवस्था समिति
उत्पादन :- उपाय (तकनीकी) सम्पन्नता सहित प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम नियोजन पूर्वक उपयोगिता व कला मूल्य सम्पन्न सामान्य व महत्वाकाँक्षा संबंधी वस्तुयें मनाकार को साकार करने के लिए निपुणता, कुशलता, पांडित्य सहित उत्पादन है।
श्रम नियोजन कार्य उपाय (तकनीकी) सहित पदार्थ, प्राण, जीवावस्था पर श्रम नियोजन पूर्वक सामान्य आकाँक्षा व महत्वाकाँक्षा संबंधी वस्तुओं को पाना उत्पादन संबंध, परिवार सहज विधि से है।
व्यवस्था :- जागृति सहज विधि से अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी है।
ऐश्वर्य :- पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था प्राकृतिक ऐश्वर्य वस्तु के रूप में वैभव है।
सामान्य आकाँक्षा :- आहार, आवास, अलंकार संबंधी वस्तुएं है।
महत्वाकाँक्षा :- दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन संबंधी यंत्र-उपकरण के रुप में है।
उत्पादन का प्रयोजन :- शरीर पोषण-संरक्षण, समाज गति में, से, के लिए वस्तुओं का उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजन स्पष्ट है।