अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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वैभवित होना ही इसका प्रयोजन है। जीवन नित्य होने के कारण जागृति भी नित्य होना स्वाभाविक है। इन क्रम में बन्धन, भ्रम, समस्या से ग्रसित बुद्धिजीवी बनाम शब्दजीवी में यह तर्क उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि जागृति क्रम की भी निरंतरता होना चाहिए। इसके लिए जागृति पूर्ण प्रणाली से उत्तर यही है कि जागृति क्रम विधि से जीवन अथवा भ्रम बन्धन विधि से जीवन शैशवकाल से शरीर संचालन करता हुआ मानव संतान जागृत होने का अभिलाषा सहित व्यक्त होने के आधार पर अथवा प्रकाशित होने के आधार पर जागृति क्रम और जागृति पूर्ण परंपरा स्वाभाविक रूप में सहज विधि से ही जागृति प्रतिष्ठा स्थापित करना सहज है। क्योंकि जागृत परंपरा में स्वायत्त मानव के लिए अति आवश्यकीय शिक्षा-संस्कार सहज रूप में उपलब्ध रहता ही है। अतएव भ्रमबन्धन का निरन्तरता केवल जीवावस्था में ही प्रमाणित होता है। मानवीयतापूर्ण मानव परंपरा में, से, के लिए भ्रमबन्धन की आवश्यकता सर्वथा निरर्थक, अनावश्यक होना पाया गया है।

सर्वप्रथम भ्रम और बन्धन का कार्य रूप, परमाणु में अणु बंधन, भार बन्धन से मुक्ति के अनन्तर; भ्रम ही आशा बन्धन रूप में व्यक्त होना जीव संसार में प्रमाणित होता है। चैतन्य पद में प्रतिष्ठित होने पर आशा, विचार का क्रियाशीलता, कम से कम आशा की क्रियाशीलता होना पाया जाता है। इसका प्रमाण रूप जीवन स्वयं अपने कार्य गतिपथ को अपने ही आशानुरूप स्थापित कर लेता है। आशा का मूल सूत्र जीने की आशा ही है। जीने की आशा जीवनगत मन सहज आस्वादनापेक्षा का प्रकाशन है। यही जीवावस्था में स्पष्ट है।

गठनशील से गठनपूर्ण परमाणु बनना ही संक्रमण है। संक्रमण का स्वरूप और कार्य निश्चित बिंदु के पहले और बाद की मध्य रेखा ही है जिसकी लम्बाई-चौड़ाई-मोटाई कुछ भी नहीं रहती है। इस संक्रमण गामी परिणाम को केवल मानव अपने दृष्टा पद प्रतिष्ठा महिमावश समझना परम सहज और परम आवश्यक है। यह संक्रमण के अनन्तर जीवन सहज कार्य प्रतिष्ठा को किसी भी यंत्र से या मानव आँखों से देखना सम्भव नहीं है क्योंकि आँखों से गणितीय भाषा अधिक है अर्थात् आँखों से जितना इंगित हो पाता है उससे अधिक गणितीय भाषा से इंगित होना देखा गया है। गणितीय भाषा से अधिक गुणात्मक भाषाओं से परस्पर मानव में