अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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इंगित होना देखा गया है और गुणात्मक भाषा से तथा गणितात्मक भाषा से जितना इंगित हुआ है उससे अधिक और सम्पूर्णता कारणात्मक भाषा से इंगित होना पाया गया है। इंगित होने का तात्पर्य, प्रयोजन सहित वस्तु स्वरूप सर्वस्व को जानना-मानना और पहचानने से है इसलिए मानव भाषा कारण-गुण-गणितात्मक है।

रूप सहज अस्तित्व में, से आंशिक भाग आँखों से इंगित होता है। गणित के द्वारा सम्पूर्ण रूप और आंशिक गुण इंगित होता है, गुण का तात्पर्य प्रभाव सहित गति है। सम्पूर्ण गुण और स्वभाव गुणात्मक भाषा से इंगित होता है। कारणात्मक भाषा विधि से स्वभाव-धर्म इंगित होता है और ‘अस्तित्व समग्र’ इंगित होता है। इस विधि से मानव भाषा अपने आप सुस्पष्ट है।

इससे यह पता चलता है कि प्रकृति ही जड़-चैतन्य स्वरूप में है तथा जड़ प्रकृति ही चैतन्य प्रकृति में संक्रमित होता है। चैतन्य प्रकृति जब तक जीने की आशा से सीमित रहती है तब तक जीवनी क्रम के रूप में ही प्रिय, हित, लाभात्मक दृष्टियों का आंशिक प्रयोग करते हुए जीवनी क्रम के परम्पराओं को बनाये रखने के रूप में साक्षित है। यही भ्रम का प्रथम चरण है। इस चरण में भ्रम की पीड़ा या बन्धन की पीड़ा प्रभावित प्रमाणित नहीं होती है। इसके साथ तर्क रूप में यह संशय हो सकता है कि भ्रम की पीड़ा के बिना किस विधि से जागृति क्रम में मानव ने आरंभ किया ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि इसके पहले प्राणकोषाओं में रचना विधि सूत्रित रहना एक रचना विधि परंपरा के रूप में स्थापित होने के उपरांत रचनासूत्र अपने ही उत्सव सहज अनुसंधान क्रम में अन्य प्रकार की रचना विधि को स्वीकारा रहता है। इसी आधार पर पहले किसी न किसी शरीर और वंश के माध्यम से अग्रिम वंश के लिए योग्य शरीर निष्पन्न हो जाती है। इसका मूल तत्व रचनासूत्र में होने वाली तृप्ति का उत्कर्ष ही है। रचनाक्रम और विधियाँ जब वंश और बीज के रूप में स्थापित हो जाती है, वह रचनासूत्र अपने आप में तृप्त होना स्वाभाविक ही है। इसी प्रकार रचनासूत्र अपने कार्य कलापों के साथ अग्रिम कार्यकलापों के लिए अपने तत्परता को अर्पित करते हैं फलस्वरूप अनुसंधानात्मक रचनासूत्र स्वीकृति सम्पन्न हो जाता है। यही अनुसंधानित बिन्दु है यह अनुसंधान रचना क्रम में ही समृद्ध