अध्यात्मवाद
by A Nagraj
जीवन जागृति सहज महिमा ही है मानवापेक्षाओं को परंपरा में साक्षित कर देता है। परंपरा में साक्षित करने का एक ही उपाय है - व्यवहार। मानव परंपरा में व्यवहार प्रमाण को प्रस्तुत करते समय शरीर का होना सहअस्तित्व सहज व्यवस्था है। इसीलिये जागृत जीवन परंपरा में ही अथवा जागृतिपूर्ण परंपरा में ही हर परिवार मानव समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को साक्षित कर देता है, सत्यापित कर पाता है। हर व्यवहार में ऐसा सत्यापन मूल्यांकित होता है। इन तथ्यों के आधार पर जागृतिपूर्ण मानव परंपरा की आवश्यकता, उसकी संभावना और इन दोनों का संयोग विधि समीचीन है।
ऊपर कहे गये तथ्यों, विश्लेषणों, संप्रेषणा के अनुसार यह सुस्पष्ट है कि मानव कुल का शरण और रक्षा अनुभवमूलक परंपरा पर ही आधारित है। इसमें और चूकने की स्थिति में मानव का इस धरती पर होने के मुद्दे पर ही प्रश्न चिन्ह लग चुका है।
अनुभवमूलक परंपरा ही न्याय, धर्म (अखण्ड समाजिकता), सत्यपूर्ण प्रणाली, पद्धति, नीति सहित विधि से सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी होना स्वाभाविक है। मानव कुल में यह तीनों स्त्रोत अर्थात् न्याय, धर्म, सत्य अक्षुण्ण रूप में मध्यस्थ नित्य वैभव होना देखा गया है। अस्तित्व अक्षुण्ण रूप में मध्यस्थ विधि से ही कार्यरत है। इसीलिये अस्तित्व में अनुभव सहज फलन ही है मध्यस्थ क्रिया, मध्यस्थ बल, मध्यस्थ शक्तियों का प्रभावित होना। मूलत: मध्यस्थ प्रभाव क्या है? इसका उत्तर अस्तित्व में यही है सम-विषमात्मक अतिरेकों को सामान्य बनाए रखने में नियोजित बल और शक्ति। बल और शक्ति अविभाज्य हैं। ऐसी बल और शक्ति क्रिया का ही स्वरूप होना देखा गया है।
सम और विषम का नियंत्रण अथवा अतिरेकों का नियंत्रण परमाणु में निहित नाभिकीय अंश का वैभव होना स्पष्ट है। हर परमाणु में परिवेशीय अंशों का निश्चित दूरी से अधिक या कम होना ही सम-विषम संज्ञा है। यह सदा-सदा नाभिकीय बल और शक्ति के प्रयोग विधि से संतुलित रहना दिखाई पड़ता है - समझ में आता है। यह संतुलन परमाणुगठन रूपी इकाई पर होने वाला ‘प्रभाव’ है। यही मध्यस्थ क्रिया, मध्यस्थ बल और मध्यस्थ शक्ति का परिचय और प्रमाण है। क्योंकि हर परमाणु संतुलित होने की स्थिति में ही स्वभाव गति के रूप में वर्तमान