अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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जिज्ञासा का होना अनिवार्य है। जब अध्ययन विधि से सम्पूर्ण प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है। प्रश्न स्थली रिक्त होना, उसी स्थली में सम्पूर्ण उत्तर स्थापित होना, अध्ययन और अध्यापन का संयोग और फलन है। प्रश्न विहीन स्थिति में अनुसंधान का आधार नहीं बनता। इस प्रकार परंपरा में सभी प्रश्नों का उत्तर अध्ययन विधि से हर मानव में हर स्थिति, परिस्थितियों में सम्पूर्ण प्रश्नों का उत्तर सहअस्तित्व सहज विधि से समीचीन है।

अनुसंधान विधि एवं अध्ययन विधि से पहले बोध ही होता है, तदोपरांत “बोध” का आत्मा में अनुभव होता है। अनुभव के उपरान्त “अनुभव सहज बोध” अध्ययन एवं अनुसंधान विधि में एक जैसा होता है एवं एक ही होता है। इसमें मुख्य तथ्य यही है यथार्थता, वास्वतिकता, सत्यतापूर्ण विधि से अध्यापन सामग्री, वस्तु, प्रक्रिया परिपूर्ण रहना आवश्यक है। अनुसंधान के लिये अज्ञात प्रश्न चिन्ह अति आवश्यक है। हर अनुसंधान को अध्ययन और अध्यापन कार्य विधि से लोकव्यापीकरण होना सुगम हो जाता है। इस प्रकार अनुभव के अनन्तर ही अनुभव ‘बोध’ होना देखा गया है। यह हर व्यक्ति में होना समीचीन है।

जीवन सहज जागृतिपूर्ण प्रक्रिया में देखा गया है कि सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में आत्मा ही अनुभूत होता है। फलस्वरूप आत्मा सहज मध्यस्थ क्रिया ही मध्यस्थ बल, मध्यस्थ शक्ति के रूप में प्रभाव क्षेत्र का होना देखा गया है। इसी प्रभाव क्षेत्र वश अनुभवका बोध बुद्धि में अनुभवका साक्षात्कार चित्त में अनुभवका सार्थकता तुलन रूपी वृत्ति में (न्याय, धर्म, सत्य) और अनुभवका आस्वादन (मूल्य रूप में) मन में प्रभावित और स्वीकृत होता है। उसी क्षण से निष्ठाकी निरन्तरता पायी जाती है। निष्ठाका तात्पर्य अनुभव प्रभाव का निरंतरता में ही जीवन की सभी क्रियाएँ अभिभूत रहने से है। अनुभव प्रभाव क्षेत्र स्वयं ही निरंतर होना पाया जाता है क्योंकि अस्तित्व में अनुभव से अधिक कुछ शेष नहीं है। सम्पूर्ण अस्तित्व ही अनुभव गम्य होने के आधार पर मध्यस्थ क्रिया का प्रभाव क्षेत्र सदा-सदा के लिए जीवन क्रिया रूपी समस्त परावर्तन-प्रत्यावर्तन क्रिया में संतुष्ट, तृप्त, समाधानित होना देखा गया है। यही जीवनापेक्षा सहज सुख, शांति, संतोष, आनंद से भी इंगित है।