अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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विश्लेषण और निश्चित चित्रण विचार रूप में सम्भावनाओं को स्वीकारना बनता है। संभावनाओं का लक्ष्य प्रिय, हित, लाभ सीमाओं में सीमित रहना पाया जाता है। यही भ्रमात्मक कार्य सीमा का अथ इति है।

जागृतिपूर्ण जीवन चित्रण में यह तथ्य सुस्पष्ट है कि न्याय, धर्म, सत्य उसका साक्षात्कार, बोध, अनुभव ही अध्ययन और अनुसंधान का लक्ष्य और कार्य है। इन्हीं कार्य रूप के आधार पर अस्तित्व और जीवन अवधारणा में स्थापित होना सफल अध्ययन का द्योतक और कसौटी भी है। इसी के आधार पर स्वायत्त मानव का सर्वेक्षण, निरीक्षण और परीक्षण होना स्पष्ट हो जाता है। स्वायत्त मानव ही अस्तित्व में अनुभव सहज जागृति का धारक-वाहक होना स्पष्ट है। इस प्रकार अध्ययन सहज रूप में जीवन और सहअस्तित्व में अनुभव बोध की अभिव्यक्ति और प्रमणित होने के क्रम में आत्मा अस्तित्व में अनुभूत होना, जीवन में केन्द्रीय होना, मध्यस्थ क्रिया और मध्यस्थ बल सम्पन्नता का स्वीकृत होना, परम तृप्त होना है। जीवन रचना मध्यांश सहज मध्यस्थ क्रिया, मध्यस्थ बल, मध्यस्थ शक्ति संतुलन के अर्थ में सदा-सदा प्रयुक्त रहता ही है। यही जागृत मानव परंपरा में प्रमाण है। मध्यस्थ क्रिया सम्मुच्चय क्रम से जीवनी क्रम और जीवन जागृति क्रम व्यक्त होता है। इसी क्रम में जागृत होना जीवन सहज प्रवृत्ति, प्रयास, आवश्यकता के योग-संयोग विधि से सम्पन्न होता है। यही अनुसंधान शोध और अध्ययन के लिए भी संयोजक तत्व है। यह तत्व सदा-सदा जीवन प्रतिष्ठा में कार्यरत रहता ही है। इसकी प्रखरता के आधार पर ही अनुसंधान, शोध, अध्ययन सहज हो जाता है। इस प्रकार यह सुस्पष्ट हो जाता है कि आत्मा अध्ययन विधि से अस्तित्व में अनुभूत होता है। दूसरा, अनुसंधान विधि से भी अस्तित्व में अनुभूत होना पाया जाता है।

अनुसंधान विधि से भी सर्वप्रथम अस्तित्व में बोध होना देखा गया है इसके उपरान्त ही आत्मा अस्तित्व में अनुभूत होना देखा गया है। अध्ययन विधि से भी यही स्थिति अर्थात् पहले बोध तदोपरांत अनुभव होना पाया जाता है। इन दोनों विधियों में से अध्ययन विधि लोकव्यापीकरण के लिए कम समय में बोध होने की स्थिति बनती है। अनुसंधान विधि में प्रवृत्त होने के लिए व्यक्ति में लक्ष्य सम्मत