अध्यात्मवाद
by A Nagraj
भारबन्धन और अणुबन्धन के फलस्वरूप भौतिक-रासायनिक रचनाओं में भागीदारी करता हुआ देखने को मिलता है। यही प्रत्येक जड़ परमाणु अपने में व्यवस्था और रचना सहज समग्र व्यवस्था में भागीदारी का साक्ष्य प्रस्तुत करता है। जबकि चैतन्य इकाईयाँ भारबन्धन और अणुबन्धन से मुक्त, आशा बन्धन से युक्त, ‘आशानुरूप कार्य गति पथ’ सहित मनोवेग के अनुपात में गतिशील रहना पाया जाता है। ‘जीवन’ अपने में गठनपूर्णता के उपरान्त अक्षय शक्ति, अक्षय बल सम्पन्न होना देखा गया है। यह ‘परिणाम के अमरत्व’ प्रतिष्ठा का फलन ही है।
आशा बन्धन से ‘जीवनी क्रम’ परंपरा को आरंभ किया हुआ जीवन, आशा से विचार, विचार से इच्छा बन्धन तक भ्रमित विधि से मानव कार्यकलापों को प्रस्तुत करता है। इच्छाएँ चित्रण कार्य को, विचार विश्लेषण कार्य को और आशा चयन क्रिया को सम्पादित करता हुआ मानव परंपरा में भय, प्रलोभन और आस्था में जीता रहता है। प्रिय, हित, लाभ संबंधी संग्रह-सुविधा-भोग द्वारा प्रलोभन के अर्थ को; युद्ध, शोषण, द्रोह-विद्रोह-संघर्ष ये सब भय को और भक्ति-विरक्ति पूर्वक आस्था त्याग-वैराग्य को मानव ने प्रकाशित किया है। यह परंपरा सहज विधि से ही होना पाया जाता है। परंपरा में इसी के लिये शिक्षा-संस्कार, उपदेश, शासन-पद्धति, संविधान भी स्थापित रही है। इसी क्रम में सामान्य आकांक्षा और महत्वाकांक्षा संबंधी और सामरिक सामग्रियों के रूप में अनेकानेक चित्रण कार्य सम्पन्न हुआ। ऐसे कुछ यंत्र संचार के लिये मार्ग और सेतु का चित्रण हुआ। इसी से सम्बन्धित अनेकानेक वस्तु, सामग्री, यंत्रों का चित्रण मानव ने किया है।
जीवनी क्रम जीवों में वंशानुषंगीय स्वीकृति के रूप में देखने को मिलता है। यही आशा बन्धन का कार्यकलाप है। वंशानुषंगीय कार्य में उस-उस वंश का कार्यकलाप निश्चित रहता है। तभी जीवावस्था व्यवस्था के रूप में गण्य हो पाता है। ऐसे जीव शरीर जो वंशानुषंगीय निश्चित आचरण को प्रस्तुत करते हैं उनमें समृद्ध मेधस का होना पाया जाता है। ऐसी वंशानुषंगीय रचना क्रम में मानव शरीर भी स्थापित है। इसकी परंपरा भी देखने को मिलती है। उल्लेखनीय मुद्दा यही है, मानव परंपरा में निश्चित आचरण स्पष्ट नहीं हो पाया। इसका कारण मानव ने तीनों प्रकार के बंधन वश जीवों के सदृश्य जीने का प्रयत्न किया। जबकि मानव अपने मौलिक