अध्यात्मवाद
by A Nagraj
उत्पादन वस्तुएँ सामान्याकांक्षा, महत्वाकांक्षा में प्रयोजित होना स्पष्ट किया जा चुका है। इन्हीं विधाओं में हर औषधि और उत्पादन प्रयोग क्रियाएँ व्यवहार में प्रमाणित हो जाती है। व्यवहार में प्रमाणित होने का स्वरूप इन दोनों विधा का उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता का साक्ष्य ही है।
युद्ध, शोषण और उनका प्रभाव विलय अथवा समाप्त होता है क्योंकि शोषण और युद्ध उन्माद और भ्रमित कार्यकलाप होना सिद्ध हो चुकी है। अनुभव प्रमाण हर व्यक्ति में समान रूप में होने का वैभव ही है समाधान व्यवहार में प्रमाणित हो जाता है। अनुभव का महिमा ही है सर्वतोमुखी समाधान। समाधान का तात्पर्य ही है क्यों, कैसे का उत्तर। ऐसी उत्तर में निष्ठा और उसकी अक्षुण्णता। अतएव व्यवहार में प्रयोग और अनुभव प्रमाणित होने की मर्यादा ही सार्वभौम व्यवस्था-अखण्ड समाज का स्वरूप है।
अध्याय - 4
आत्मा जीवन में अविभाज्य है
‘जीवन’ का स्वरूप विकासपूर्णता के फलन में चैतन्य पद प्रतिष्ठा सहज एक परमाणु है जो भारबन्धन और अणुबन्धन से मुक्त है। यही ‘जीवन’ के नाम से सम्बोधित है। भ्रम बन्धन से मुक्त होना मोक्ष है यही जागृति सहज प्रमाण है।
जीवन में मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि और आत्मा अविभाज्य रूप में क्रियाशील है। ये सब निश्चित क्रियाओं के नाम है। ‘वस्तु’ के रूप में मध्यांश सहित चार परिवेशों के रूप में क्रियाशील इकाई है। इस प्रकार ‘जीवन’ अपने में चैतन्य पद प्रतिष्ठा सहित मानव परंपरा में समझदारी सहित परावर्तन-प्रत्यावर्तन पूर्वक जीवन सहज क्रियाओं को प्रकाशित करता ही रहता है। यही जागृति है।
व्यवस्था की मूल वस्तु अस्तित्व में केवल परमाणु ही होना पाया गया है। सत्ता में संपृक्त प्रकृति ही जड़-चैतन्य के रूप में वैभवित हैं। इनमें से जड़ प्रकृति