अध्यात्मवाद
by A Nagraj
‘वृत्ति’ और चतुर्थ परिवेशीय अंशों को ‘मन’ नाम दिया है। अस्तित्व सहज रूप में ये सब वस्तुएँ जो सदा सदा वास्तविकता को प्रकाशित किया करते हैं। जीवन अस्तित्व सहज वस्तु है। जीवन रचना-सूत्र भी सहअस्तित्व सहज विधि से ही रचित रहना देखा गया है और हर व्यक्ति अध्ययन पूर्वक समझ सकता है। देखने का तात्पर्य समझना ही है।
जागृत मानव में ही (चार परिवेशीय और केन्द्रीय अंश सहज विधि से रचित रचना स्वरूप में) क्रम से मन वृत्ति में, वृत्ति चित्त में, चित्त बुद्धि में, बुद्धि आत्मा में और आत्मा सहअस्तित्व में अनुभूत होना देखा गया है। अनुभूत होना ही समझदारी की परिपूर्णता और उसकी निरंतरता है।
बंधन-भय पर्यन्त मन शरीर के आकार में सम्मोहन विधि से प्रभावित रहता है। ऐसे भ्रमित मन के पक्ष में ही विचार, इच्छा साथ ही तुलन में से प्रिय, हित, लाभ प्रवृत्त हो जाता है। फलत: भ्रम और भय का पुष्टि होकर, हर शरीर यात्रा में प्रभावित होता है। इसको हर व्यक्ति सर्वेक्षण पूर्वक प्रमाणित कर सकता है। उक्त विधि से शरीर केन्द्रित मानसिकता और उसके अनुरूप जीने की आशा और उसके समर्थन में जीवन शक्तियों में से मन के समर्थन में होने के फलस्वरूप स्वर्ग, नर्क, पाप, पुण्य की कल्पना को स्वीकारा गया। जिसके आधार पर भय और प्रलोभन को आवश्यक समझा गया। जिसकी सफलता के लिए आस्थावादी मानसिकता पर बल दिया गया। फलस्वरूप समुदाय परंपराओं में प्रकारान्तर से आस्थावादी मानसिकता पनपते आया। सर्वाधिक भय और प्रलोभन के आधार पर ही आस्थाएँ मानव में कार्यरत मनोकामना के रूप में अथवा मनमानी के रूप में रहना मिला। आस्थाएँ अधिकांश रहस्यमय रहा। अतएव आस्थाओं को व्यवहार में प्रमाणित करना संभव नहीं हुआ।
अनुभव सम्पन्न जीवन से ही जीवन सहज अभिव्यक्ति है। जबकि भ्रम भी ‘जीवन-भ्रम’ के आधार पर ही होना देखा गया है। अनुभव और जागृति, जीवन तृप्ति की अभिव्यक्ति होना पाया जाता है जबकि भ्रम अतृप्ति का ही द्योतक होना देखा गया। भ्रमित होने का, रहने का, कार्य करने का मूल रूप जीवन ही है। शरीर को जीवन समझने के आधार पर भ्रम है। जीवन को स्वत्व के रूप में समझ