अध्यात्मवाद
by A Nagraj
जीवन रचना के आधार पर जीवन में आत्मा अविभाज्य क्रिया होना स्पष्ट हो गई है। अस्तित्व में अनुभव ही आत्मा सहज क्रिया है। अनुभव ही दूसरे नाम से प्रत्यावर्तन क्रिया है और इसका परावर्तन क्रिया को प्रामाणिकता-प्रमाण नाम दिया है। अनुभवमूलकता आत्मा में होने वाली क्रिया है। यही जागृति है। यह जागृति सहअस्तित्व में अनुभवमूलकता आत्मा में होने वाली जागृति ही है। जागृति सहअस्तित्व में अनुभव हुई है। इसी जागृत स्थिति में होने वाली गति को प्रत्यावर्तन नाम दिया गया है। सम्पूर्ण प्रत्यावर्तन दर्शन और ज्ञान नाम से प्रतिष्ठित हैं। ज्ञान और दर्शन स्वाभाविक रूप में ओत-प्रोत रूप में वर्तमान है। सम्पूर्ण अस्तित्व सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति ही सहअस्तित्व का मूल स्वरूप है। इसका सामान्य कल्पना हर मानव में होना संभव है। कल्पना का मूल स्त्रोत आशा, विचार, इच्छा का अस्पष्ट गति रूप है क्योंकि सम्पूर्ण कल्पनाएँ परावर्तन में कार्यरूप रहना देखा जाता है। मानव ही कल्पनाशीलता का प्रयोग करता है। इसे ऐसा भी कहा जा सकता है कि हर व्यक्ति प्रकारान्तर से कल्पनाशीलता का प्रयोग करता है। भ्रमित मानव द्वारा कल्पनाशीलता का सर्वाधिक प्रयोग शरीर और इन्द्रिय सन्निकर्ष के रूप में ही स्वाभाविक है। यह भ्रम विवशता है। यही कल्पनाएँ चिन्हित रूप में स्पष्ट होने के लिए तत्पर होते हैं। तभी विधिवत