अध्यात्मवाद
by A Nagraj
करने के लिए प्रवृत्तियाँ बुलंद होते ही आया, अर्थात् बढ़ता ही आया। जबकि हर मानव भय और प्रलोभन रूपी भ्रमवश ही संघर्ष करता है। आदि काल से कबीला युग तक भी भय और प्रलोभन रहा।
प्राकृतिक प्रताड़ना से भयभीत रहा हुआ मानव जाति को राजा और गुरु ने मिलकर स्वर्ग और मोक्ष का, जान-माल की सुरक्षा का आश्वासन देते रहे। कबीला युग तक में संघर्षशीलता हाथ, पैर, नख, घूंसा, पत्थर, डंडा, तलवार तक पहुँच चुके थे। जैसे ही राजदरबार आया, समर शक्ति संचय विद्या में समुन्नत क्रिया के नाम से जो कुछ भी किया वह सब बन्दूक, बारूद, हथगोला, गुलेल प्रणाली, धनुष प्रणाली के साथ-साथ राडर प्रणाली जुड़कर वध, विध्वंसात्मक जैविक रासायनिक अणुबमों को दूर मार, मध्यम मार, निकट मार विधियों को विधिवत तकनीकी पूर्वक हासिल किया। इसमें भय स्वाभाविक रूप में बरकरार रहना पाया गया। प्रलोभन, छीना-झपटी, वंचना-प्रवंचना, द्रोह-विद्रोह पूर्वक और छल-कपट-दंभ-पाखंड पूर्वक परस्पर शोषण चरमोत्कर्ष रूप धारण किया। प्रलोभन के रूप में संग्रह-सुविधा उद्वेलित करता ही आया। इसका तात्पर्य यह हुआ आदिकाल में जो भय और प्रलोभन रहा है, उसे नर्क के प्रति भय और स्वर्ग के प्रति प्रलोभन के रूप में आदर्शवाद ने स्थापित किया, भौतिकवाद से सुविधा, संग्रह, भोग, अतिभोग में प्रलोभन, दूसरे का अपहरण, छीना-झपटी, लूट-खसोट करते समय सामने वाला कुछ कर जायेगा, इस भय के मारे दमनशील उपायों को अपनाने के आधार पर संघर्ष मानसिकताएँ सज गया। इसी में सर्वाधिक व्यक्तियों का मन प्रवृत्त रहना पाया जाता है। इसका पहला साक्ष्य संग्रह, द्वितीय साक्ष्य दमनकारी उपायों के प्रति पारंगत रहना ही है। ऐसे दमनकारी उपायों से लैस रहने के लिए व्यक्ति, परिवार और हर समुदाय अधिकाधिक सुसज्जित होने के लिए यत्न, प्रयत्न, कर्माभ्यास, युद्धाभ्यास करता हुआ समूची धरती में दिखाई पड़ता है। इन्हीं गवाहियों के साथ आदिकालीन अर्थात् झाड़ के ऊपर, गुफा, कन्दराओं में झेलते हुए समय में जो मानव मानसिकता में भय सशंकता सर्वाधिक प्रकोप किया था वह यथावत् रहा है। उसके साथ प्रलोभन मानसिकताएँ धीरे-धीरे बढ़ते हुए समूचे धरती की सम्पदा का हर व्यक्ति अपने तिजोरी में बंद कर लेने की कल्पना करता हुआ स्थिति को सर्वेक्षित किया जा सकता है। इसका गवाही यही है संग्रह का तृप्ति बिन्दु नहीं है।