अध्यात्मवाद
by A Nagraj
बताया। अतिभोग-बहुभोगशीलता गलत है। इसी के साथ-साथ स्वर्ग की अर्हता को पूरा करने के लिए त्याग का उपदेश दिया गया। ज्यादा से ज्यादा सुख-सुविधावादी वस्तुओं का दान योग्य पात्रों को करने से स्वर्ग में अनंत गुणा सुख सुविधाएं मिलने का आश्वासन किताबों में लिखा गया। ध्यान, स्मरण, कृत्यों को पुण्य कमाने का स्त्रोत बताया गया। इसी के साथ-साथ अवतारी आचार्य, गुरू, सिद्ध, आश्वासन देने में समर्थ व्यक्तियों का सेवा, सुश्रुषा, उनके लिए अर्पित दान, स्तुति, कीर्तन ये सब पुण्य कमाने का विधि बताए। इसी के साथ-साथ परोपकार, जीव, जानवर, पशु पक्षीयों के साथ प्रेम, फूल-पत्ती, पेड़ के साथ दया करने को भी कहा। साथ ही मन को धोने और स्थिर करने की बातें बहुत-बहुत कही गयी है। इन सभी उपदेशों का भरमार रहते हुए भी भय, प्रलोभन और आस्थावादी कृत्यों से अधिक मानव परंपरा में इस समूची धरती में और कुछ होना देखने को नहीं मिला। अर्थात् उपदेश के रूप में जो बातें कहते आये हैं उसके अनुरूप कोई प्रमाण होता हुआ देखने को नहीं मिला। इसी समीक्षा के आधार पर ही “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” की परमावश्यकता को स्वीकारा गया।
दूसरे विधा से मानव सहज कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता के आधार पर विचारों का उन्नयन हुआ, जिसको हम भौतिकवादी विचार कह रहे हैं। सम्पूर्ण कल्याण का आधार सुख-सुविधा और स्वर्ग का स्वरूप भौतिक वस्तु ही होना बताया गया। इसे अधिकांश लोकमानस में स्वीकारा भी गया। इस प्रकार अदृश्य के प्रति आस्थान्वित होना, दूसरे विधि से जो दृश्यमान वस्तुएँ है उसी को सम्पूर्ण सुख-सुविधा का आधार या विकास का आधार मान लेना देखा गया। भौतिकवाद भय और प्रलोभन के बीच झूलता हुआ संघर्षशील, संघर्षमय मानसिकता को तैयार करता हुआ देखा गया। भौतिकवाद का सार बात समीक्षा के रूप में यही मिलता है कि संघर्ष के लिए तैयार रहना परमाणु, अणु और अणु रचित पिण्डों का कार्यकलाप है। उसी क्रम में मानव भी एक रासायनिक-भौतिक वस्तुओं से रचित पिण्ड है। इनको सर्वाधिक संघर्ष करने का हक है। इसका प्रयोग करना ही प्रगति और विकास बताया गया है। यह भय, प्रलोभन निग्रह बिन्दुओं में फँसा हुआ आस्थाओं से टूटकर स्वर्ग में मिलने वाला सभी चीजें यहीं मिलने का संभावना बना। उसके लिए आवश्यकीय संघर्ष को जैसा-जैसा भौतिकवादी शिक्षा में शिक्षित हुए वैसे-वैसे अनेक तरीकों सहित संघर्ष