अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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को स्वीकार पाये, कुछ को नहीं स्वीकार पाये। जहाँ तक पदार्थावस्था की रचनाएँ हैं उनके उपयोग से ही सर्वाधिक अथवा सम्पूर्ण यंत्र निर्मित होते आया। हर यंत्र ईंधन संयोग से चलता रहा। विज्ञान के कथन के अनुसार रचना के अनुसार काम करता है जबकि ईंधन संयोग के बिना कोई यंत्र काम नहीं किया। वनस्पति एवं शरीर को यंत्र रचना के रूप में मानते हुए अंततोगत्वा हड्डी के आधार पर सम्पूर्ण रचना, सम्पूर्ण जीव शरीर, सम्पूर्ण मानव शरीर को मानते हुए नृतत्व (मानव तत्व) को उन्हीं किसी हड्डी में होने के अन्दाज पर खोजते आ रहे हैं। इसी के साथ प्रयोग दर प्रयोग के परिणिति को अंतिम सत्यता मानते हुए अबाध गति से प्रयोगों को बुलंद किये रहते हैं।

इन दोनों की समीक्षा यही है कि चेतना से पदार्थ और पदार्थ से चेतना इस दशक तक प्रमाणित नहीं हुआ। भक्ति-विरक्ति प्रयोगों का अबाध गति, इन दोनों क्रम में सत्य सहज सुलभ होने का कोई मार्ग प्रशस्त नहीं हुआ। वस्तुवादी, यंत्रों को प्रमाण मानते हैं; आदर्शवादी, आदर्श व्यक्तियों को प्रमाण मानते आये है। आदर्श व्यक्तियों के पहचान का पृष्ठभूमि भक्ति-विरक्ति ही है। यंत्र प्रमाण मानने की पृष्ठभूमि प्रयोगशाला ही है - वह भी स्वयं यंत्रोपकरण ही है। आदर्श व्यक्तियों को ‘आप्त पुरूष’ नाम दिया है उनके वचनों को प्रमाण माना गया है। जबकि वस्तुवादी विधि से पारंगत यंत्रों को प्रमाण माना, प्रयोगों, नियमों को प्रमाण माना और आदर्शवादियों ने व्यक्ति का सम्मान किया।

इन दोनों प्रकार के मानव बहुसंख्या में इस धरती पर प्रसिद्ध हुए हैं। प्रसिद्ध होने का तात्पर्य है बहुत सारे लोगों को ज्ञात हुआ है। अभी भी दोनों विधा से ख्यात व्यक्ति इस दशक में भी देखने को मिलते हैं। इसी शताब्दी के अर्ध शतक से देखते भी आये हैं।

इन्हीं दो प्रकार से बताए गये मनीषीयों के प्रेरणा से ही इस धरती के सभी सामान्य लोग कार्य-व्यवहार-विचार करते आये हैं। इसका परिणाम आज की स्थिति में अर्थात् बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक में मानव-मानव के साथ संघर्षशील, प्रदूषणरूपी विकृत पर्यावरण वश पीड़ा, संकट, रोग, बढ़ती हुई जनसंख्या, बेरोजगारी, अनानुपाती सुविधा-संग्रह का होना, हर दिन कल के लिए अधिक मुद्रा की