अध्यात्मवाद

by A Nagraj

Back to Books
Page 34

अध्याय - 3

अनुभव सहज प्रामाणिकता सर्व मानव में, से, के लिए समान है

इस ग्रंथ के पूर्व के अध्यायों में इस तथ्य और घटना को स्पष्ट किया है कि मानव का जब से इस धरती पर उदय हुआ है तब से बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक व्यक्ति के रूप में, परिवार के रूप में, समुदायों के रूप में जो कुछ भी कर पाया, सोच पाया जिसके फलस्वरूप जो परिणाम आज की स्थिति में देखने को मिल रहा है उसे विविध प्रकार से हृदयंगम कराया गया है वह - (1) जो कुछ भी सोच पाया जिसको अधिकांश लोग अथवा समुदाय के अधिकांश लोग मान्यतापूर्वक आस्था रखते रहे हैं। वह रहस्यमय अध्यात्मवादी विचार, रहस्यमयी अधिदैवीय विचार और रहस्यमयी अधिभौतिक विचार बनाम आदर्शवाद एवं (2) अस्थिरता-अनिश्चयतामूलक वस्तुवाद बनाम भौतिकवाद है।

इस प्रकार भय, प्रलोभन, आस्थावादी विचारों के साथ ही मानव कुल अपना गति बनाये रखने में अभ्यास करता रहा। पहले विचार के मूल प्रतिपादन में ईश्वर से सब पैदा होता है। इसमें प्रमुख तथ्य आँखों में दिखने वाली वस्तुओं को माया कहा गया। दूसरे विचार के अनुसार ईश्वरीयता गौण हो गया, वस्तु प्रधान हो गया। वस्तुवादी मूल प्रतिपादन में वस्तु से चेतना पैदा होने की बात कही। उसका सूत्र रचना के साथ जोड़ा गया। रचना के अनुसार चेतना पैदा होने की बात कही। यही भौतिकवाद का मूल प्रतिपादन है। विविध रचनाएँ मानव के सम्मुख देखने को मिलता ही रहा। इसी के साथ-साथ शरीरवाही यानों, वस्तुवाही वाहनों, शब्दवाही, दृश्यवाही यंत्रों-उपकरणों को मानव के सम्मुख प्रस्तुत किया। इसके प्रति सामान्य लोगों की भी आस्था जुड़ी। इसलिये इस ओर सर्वाधिक लोगों का ध्यान गया, स्वीकारा गया। इसी के साथ-साथ उत्पादन कार्यों में सहायक यंत्रोपकरणों को निर्मित किया गया। रचना के आधार पर ही वस्तुएँ काम किया रहता है। सम्पूर्ण रचनाओं को यंत्र के रूप में पहचानने के लिये प्रयत्न किया, कोशिश किया। कुछ