अध्यात्मवाद
by A Nagraj
व्यवस्था सहित वैभवित होना दिखता है। इसी साक्ष्य के आधार पर मानव अपने कर्मस्वतंत्रता कल्पनाशीलता का विवेक सहित उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता को जानना-मानना-पहचानना-निर्वाह करना एक अनिवार्यता बन चुका है। इसका मतलब यही है मानव सुधर के ही रहे अन्यथा मानव सहित जीव और वन-वनस्पति संसार संप्राणित जीवित रहता हुआ इस धरती पर दिखेगा नहीं यही धरती का शक्ल बिगड़ने का विकराल परिणाम है।
धरती के शक्ल को बिगाड़ने के लिये मानव का कर्म स्वतंत्रता का दुरूपयोग ही मूल कारण है। “जो जिसको अपव्यय करेगा उससे वह वंचित हो जायेगा” के सिद्धान्त के अनुसार धरती का अपव्ययतावश ही मानव में, से, के लिये इस सौभाग्यशाली धरती से वंचित होने का कारण बन चुका है। इसलिए आवश्यकीय सम्पूर्ण परिवर्तन अर्थात् अनुभव और जागृति सहज सम्पूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिपेक्ष्य और देश-काल में परंपरा के रूप में अनुभवमूलक विधि को अपना लेना ही सुख-सुन्दर-समाधानपूर्ण होगा। इसके लिए जागृतिपूर्ण मानव परंपरा ही एकमात्र उपाय है। जागृति सहज अधिकार सर्वमानव में, से, के लिये समान होना देखा गया है। इसके मूल में जीवन में देखा गया प्रत्येक जीवन रचना, शक्ति, बल और लक्ष्य समान है। इसे भले प्रकार से समझा गया है।
“भ्रम ही बंधन है एवं बंधन मुक्ति ही जीवन जागृति है।” जीवन जागृति के लिये ही हर मानव आतुर-कातुर और आकुल-व्याकुल रहता है। अनुभव पूर्वक ही मानवापेक्षा-जीवनापेक्षा सफल होना देखा गया है। भ्रम बन्धन वश ही संग्रह सुविधा जैसी वितृष्णा में भटकना और शरीर यात्रा के अनन्तर स्वर्ग और मोक्ष के आश्वासन से ग्रसित रहना देखा गया है। इन दोनों स्थितियों में मानवापेक्षा और जीवनापेक्षा प्रमाणित नहीं हो पाता है। देखा हुआ तथ्य यही है कि जीवनापेक्षा सफल होने की स्थिति में मानवापेक्षा और मानवापेक्षा सफल होने की स्थिति में जीवन-अपेक्षा सफल होता है। इस प्रकार जीवन और मानव अपेक्षा का संतुलन बिन्दु समझ में आया है। इन्हीं यथार्थतावश अनुभवमूलक विधि को मानव परंपरा अपनाना एक आवश्यकता है। इसलिये प्रस्ताव के रूप में यह “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” मानव के कर कमलों में अर्पित है।