अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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सहज अनुभव और जागृति का निर्मूल्यन बिन्दु है। जीवन के स्थान पर शरीर को ही जीवन मान लेना प्रगाढ़ भ्रम का गवाही है। इसी भ्रमवश ही मानव जितने भी भ्रमात्मक क्रियाकलापों को कर पाता है वह सब समस्या में ही परिणित हो जाते हैं। जैसे, विज्ञान संसार की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ दूरसंचार के रूप में और दूसरा उत्पादन कार्यों में गति के रूप में यंत्रों को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। यह अपने में उपलब्धियाँ होते हुए मानव में जागृति, अनुभव परंपरा न होने के कारण इनके उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता के स्थान पर सुविधा-भोग-अतिभोग का साधन बनकर रह गया है।

आशा, विचार, इच्छा रूप में बन्धनों को देखा जाता है। जीवन में ही आशा, विचार, इच्छाएँ क्रियाशील रहती हैं। आशापूर्ति, विचारपूर्ति एवं इच्छापूर्ति ही बन्धन का स्वरूप है। भ्रमवश सम्पूर्ण आशा, विचार, इच्छाओं को शरीर कार्य, शरीर सुविधा, शरीर भोगों के आपूर्ति के लिये दौड़ा लिया। मानव में कर्मस्वतंत्रतावश वैज्ञानिक उपलब्धियों के रूप में यांत्रिकता प्रमाणित हो गई। इन यंत्रों को सदुपयोग करने के स्थान पर अपव्यय करना मानव परंपरा में बाध्यता के रूप में देखा गया, आवश्यकता माना गया है। इसी के परिणामस्वरूप धरती का स्वस्थ मुद्रा अस्वस्थ मुद्रा के रूप में परिणित हो गया है। साथ ही जितने भी जीवन अनुभवमूलक विधि से जागृति होने के लिए उम्मीदें लेकर मानव परंपरा में मानव शरीर को संचालित करने के लिये तत्पर रहते हैं उन सबका जीवन आशा अथवा जीवन अपेक्षा ध्वस्त हो जाता है। इसके मूल में भ्रमित मानव परंपरा ही कारक तत्व है। इस प्रकार से भटकता हुआ जीवन संतुष्टि स्वाभाविक रूप में भोग मानसिकता को न्याय मानसिकता में, संग्रह मानसिकता को समृद्धि मानसिकता में, संघर्ष मानसिकता को समाधान मानसिकता में, द्रोह मानसिकता को पूरक मानसिकता में, विद्रोह मानसिकता को धीरता रूपी मानसिकता में, शोषण मानसिकता को विनियम मानसिकता में, युद्ध मानसिकता को सहअस्तित्व मानसिकता में, शासन मानसिकता को सार्वभौम व्यवस्था मानसिकता में, समुदाय मानसिकता को अखण्ड समाज मानसिकता में प्रयोजित होना अनुभवमूलक विधि से सहज संभावना है। यह निरंतर समीचीन है। यही “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” (आदर्शवाद) का तात्पर्य है। आदर्श किसका है, भ्रमित मानव का।