अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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ऊपर कहे सम्पूर्ण परिवर्तन बिन्दुएँ सकारात्मक होने के कारण जीवन सहज रूप में स्वीकार है। यह सब नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य से ही सूत्रित वैभव है। दृष्टा पद प्रतिष्ठा जीवन में ही निहित है न कि शरीर में। इस तथ्य को पहले इंगित करा ही चुके हैं। इसलिये “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” परिचय विधि से ही आवश्यकता को उद्गमित करता है।

अनुभवमूलक विधि से ही जीवन सहज सभी कार्यकलाप जैसे अनुभव और प्रामाणिकता के अनुरूप बोध और संकल्प, अनुभवमूलक विधि से प्राप्त बोध और संकल्प के अनुरूप चिंतन और चित्रण, ऐसे चिन्तन और चित्रण के अनुरूप तुलन और विश्लेषण तथा आस्वादन चयन है। यही अनुभव समुच्चय का तात्पर्य है। अनुभवमूलक विधि से शरीर संचालन विधि स्वयं ‘त्व’ सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित कर देता है। हर मानव व्यवस्था चाहता ही है। ऐसी व्यवस्था के लिये परंपरा स्वयं अनुभवमूलक विधि से जागृति सहज प्रमाण होना परमावश्यक है। इस क्रम में जीवन तथा शरीर का संयुक्त रूप में ही जीवन्त मानव के रूप में हर मानव प्रमाणित/मूल्यांकित होता है। शरीर में जीवन्तता अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों का क्रियाकलाप पूर्णतया जीवन का ही वैभव होना देखा गया, जीवन ही अस्तित्व में अनुभूत होना देखा गया है। अनुभवमूलक क्रम में जागृत जीवन क्रियाकलाप स्वाभाविक होना समझा गया। जलवायु, वन सहित जो धरती का शक्ल बिगड़ चुका है, जिसे विज्ञान जगत के मेधावी प्रतिभाएँ भले प्रकार से समझ चुके हैं। अनुभवमूलक पद्धति, प्रणाली, नीति को मानव परंपरा में अपनाना ही होगा, तभी धरती के ऐश्वर्य सहित मुद्रा-भंगिमाएं सुधरने की अर्थात् धरती अपने समृद्धि सहित यथास्थिति को बनाए रखने योग्य पुनः हो पायेगी। मानव सहज सुधार और उसकी यथा स्थिति का प्रमाण अनुभवमूलक प्रणाली है। भ्रम का तात्पर्य ही बिगड़ा रहना है। मानव कुल ही कर्म स्वतंत्रतावश सम्पूर्ण गलती-अपराध करने के लिये विवश हुआ है। जैसे स्वनाश सहित धरती के नाश को निमंत्रित करने का एकमात्र इकाई मानव ही है।

मानव के अतिरिक्त सम्पूर्ण प्रकृति में इस प्रकार का कोई उद्यम करता हुआ दिखता नहीं साथ ही मानव के अतिरिक्त सम्पूर्ण प्रकृति अपने-अपने ‘त्व’ सहित