अध्यात्मवाद
by A Nagraj
होना, फलस्वरूप मानव सहज सर्वशुभ, जीवन सहज नित्य शुभ, हर मानव में, से, के लिये प्रमाणित होता है।
जागृति विधि से ही संग्रह, सुविधा, पूंजी पर अधिकार की निरर्थकता स्पष्ट होती है और आकाश, खनिज, वन, समुद्र धरती पर अधिकार कल्पनाएँ भ्रामक सिद्ध हो जाती हैं। इसी क्रम में शरीर व्यापार, ज्ञान व्यापार, धर्म व्यापार, विचार व्यापार, मानव का व्यापार, बौद्धिक सम्पदा का व्यापार सम्बन्धी सभी प्रयास, प्रक्रिया, परिणाम का व्यर्थता हर मानव को समझ में आता है। यही अनुभव और जागृति सहज महिमा है। ऐसी जागृति का पहला प्रमाण स्वायत्त मानव ही होना देखा गया है।
स्वायत्त मानव का प्रमाण रूप मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार ही है। इसकी महिमा को स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन और व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वालंबन है। ऐसे स्वायत्त मानव ही परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। हर परिवार मानव परस्परता में संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन और उभय तृप्ति को पाना देखा गया है। परिवार मानव ही परिवार सहज आवश्यकता के अनुसार अपनाया गया उत्पादन कार्य में एक दूसरे के पूरक होते हैं, भागीदारी का निर्वाह करते हैं, फलस्वरूप परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन होना देखा गया है। यही समृद्धि, समाधान, न्याय सूत्र होना देखा जाता है। परिवार में समाधान और समृद्धि संबंधों के आधार पर पाये गये उभय तृप्ति सहज न्यायपूर्वक व्यवस्था में जीना सहज होता हुआ देखा गया है। इन्हीं सहजता की पुष्टि में आवश्यकता से अधिक उत्पादन समृद्धि को प्रमाणित कर देता है। व्यवस्था में जीना ही समाधान का प्रमाण है और वर्तमान में विश्वास है। अतएव स्वायत्त मानव स्वरूप अनुभवमूलक होना देखा गया है। फलस्वरूप परिवार मानव, समाज मानव और व्यवस्था मानव के रूप में होना नियति सहज अभ्युदय (सर्वतोमुखी समाधान) और प्रामाणिकता (अनुभव और पूर्ण जागृति) सहज मानव में सार्थक होना देखा गया है। इसी आधार पर यह “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” लोक मानस के लिये प्रस्ताव के रूप में प्रस्तुत है। मानव ही ज्ञानावस्था की इकाई होने के कारण