अध्यात्मवाद
by A Nagraj
होना मान्यता के रूप में लोकव्यापीकरण हुआ है जबकि युद्ध न तो विकास का आधार है, न कड़ी है, न प्रक्रिया है। क्योंकि इससे अखण्ड समाज का एक भी सूत्र-व्याख्या, प्रयोजन प्रमाणित नहीं होता। जबकि मानवीयतापूर्ण पद्धति, प्रणाली, नीति से अखण्ड समाज का ही सूत्र रचना, व्याख्या व प्रयोजन नित्य समीचीन है। इससे वंचित होने का एक ही कारण है, भ्रमात्मक मानसिकता अथवा भय, प्रलोभन, आस्थाओं से ग्रसित मानसिकता ही है। अभी तक जितने भी झीना-झपटी युद्ध, विश्वयुद्ध हुए हैं, वे सब उक्त तीनों आधारों पर ही सम्पन्न हुए हैं। अतएव अनुभवमूलक विधि से ही मानवीयतापूर्ण पद्धति प्रणाली नीतिपूर्वक है। अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था, मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार सुलभता, न्याय-सुरक्षा सुलभता, उत्पदान-कार्य सुलभता, विनिमय-कोष सुलभता, स्वास्थ्य संयम सुलभता नित्य वैभव के रूप में इसी धरती पर वैभवित होना सहज है, नियति है, एक अपरिहार्यता है। ऐसी ऐश्वर्य सम्पन्न मानव परंपरा महिमा से ही अनेक राज्य, समुदाय सम्बन्धी अधिकारोन्माद समापन होना स्वाभाविक है। इसका समापन और मानवीयता का उदय अर्थात् जागृति ही मानव परंपरा में, से, के लिये मौलिक संक्रमण और परिवर्तन है।
मानव जाति, मानव धर्म एक ही है और धरती एक है। इस आधार पर अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था मानव परंपरा में वैभवित होना सहज है। इसी के साथ राज्याधिकार उन्माद समापन होने के साथ-साथ सामुदायिक धर्मोन्माद, बनाम संप्रदाय-मत-पंथों का भ्रम और उन्माद अपने-आप दूर होता है। अखण्ड समाज विधि से सहज होने के कारण, सर्वसुलभ होने के कारण मानव परंपरा में सुख-शांति का सूत्र अपने-आप प्रभावशील होने लगता है। सुख-शांति के लिये विविध धर्म कहलाने वाले अथवा सामुदायिक धर्म कहलाने वाले संप्रदायों का आशय रूप में जो सुख शांति की अपेक्षा और आश्वासन के बीच ये सभी गद्दियाँ अपने को सम्मानशील बनाये रखे हैं। सभी मानव इनकी आवश्यकता को मूल्यांकन करने योग्य होता है फलस्वरूप ये सब भ्रम अपने आप दूर होने की व्यवस्था समीचीन है।