अध्यात्मवाद
by A Nagraj
विरक्तिवादी। ये सब व्यक्तिवादी अस्मिता के रूप में ही पूर्वावर्ती वाङ्गमयों में स्वीकारा गया है। इन चारों स्थितियों में पहला मुद्दा है अधिकारवाद। इसे विसंगतियों के अर्थ में स्पष्ट किया जा चुका है। इसी के आनुषंगिक स्पष्टीकरण के क्रम में ही शक्ति केन्द्रित शासन अनेक समुदायों के द्वारा किसी भूखण्ड के क्षेत्र में पनपता हुआ देखने को मिलता है। यह सर्वविदित तथ्य है। इसी को राष्ट्र और राज्य कहा जाता है। उस भू-क्षेत्र में रहने वाले उन संविधान को सम्मान करने वाले व्यक्ति समुदाय होना स्वाभाविक है। उनका भाषा-संस्कृति में समानता का भी अपेक्षा बनी रहती है। इसी क्रम में राष्ट्रभाषा का भी संविधान में एक प्रावधान बनी रहती है। प्रधान रूप में सभी संविधान अपने अपने धर्म, कर्म, उपासना, अभ्यास, संप्रदाय के स्वतंत्रता की घोषणा और गलती, अपराध और युद्ध को उसी-उसी प्रकार से रोकना प्रधान उद्देश्य रहता है। सही-गलती को बताने वाला राजा और गुरू के संयोग से होता रहा। अभी भी कहीं-कहीं ऐसा होता भी होगा। अधिकांश भू-भागों में अर्थात् राज्य-राष्ट्रों में जनप्रतिनिधियों के मानसिकता के अनुसार सही, गलती, अपराध और न्याय जो कुछ भी निर्णय के रूप में स्वीकारे रहते हैं - न कि ‘वस्तु’ वास्तविकता के रूप में।
सम्पूर्ण देश और राष्ट्रवासियों का कार्यकलाप इस प्रकार दिखाई पड़ती है - (1) शासन कार्यो में भागीदारी (अधिकारों की भागीदारी) करते हुए कुछ लोग होते है। (2) कुछ लोग शासन कार्यो में भागीदारी को निर्वाह नहीं करते - इन्हीं को आम जनता भी कहा जाता है।
आम जनता अपने आजीवीका के लिये स्वयं ही चिंतित रहते हुए प्रयत्न किये रहते है, कुछ लोग उत्साह से भी प्रयत्न करते हैं। इन्हीं आम लोगों के सुविधा को भी शासन कार्यों में एक मानवीयता के रूप में स्वीकारा हुआ रहता है। ऐसे सभी कार्य धन पर आधारित रहना देखा गया है। आम जनता के सुविधावादी क्रिया-कलापों को सड़क, चिकित्सालय, पानी, डाक, दूरभाष, शिक्षा-साक्षरता, आवास, दूरसंचार कार्यों के रूप में देखने को मिलता है। प्रधानत: इन्हीं को विकास कार्य कहते हैं।
शासन मानसिकता मानव में तब से पनपा जब मारपीट कार्यों में परकाष्ठा में पहुँच गये। अर्थात् हर दिन मारपीट, सशंकता, भय से पीड़ित जीने की स्थिति आरंभ