अध्यात्मवाद
by A Nagraj
अध्याय - 6
दृष्टा, कर्ता, भोक्ता
जीवन ही दृष्टा है-मानव परंपरा में जागृति प्रमाणित होता है।
मानव में किंवा हर मानव में देखने का दावा समाहित है। इसी के साथ और भी देखने की कामना बनी ही रहती है। ये दावा और कामना आँखों से जो कुछ भी दिख पाता है उसी के लिए अधिकतर संख्या में मानव जूझता हुआ देखने को मिलता है यह सर्वविदित तथ्य है। इसी क्रम में और देखने की विधि से प्रकारान्तर से पूरा धरती पूर्व से पश्चिम तक, उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक और दक्षिणी ध्रुव से उत्तरी ध्रुव तक देख लिया। इसी के आधार पर धरती का सर्वेक्षण कार्य भी सम्पन्न हुआ। इसी क्रम में आगे ग्रह-गोलों को, अनेक सौर व्यूह को देखने की इच्छा निर्मित होती रही। किसी एक पीढ़ी में धरती के मानव चाँद तक जाकर वापस आ गए। चन्द्रमा धरती के सदृश्य ठोस गढ्ढे और पत्थर का होना बताया। वहाँ पानी और वनस्पतियाँ न होने का सत्यापन किया। वहाँ हवा का दबाव नहीं है बताया। वहाँ गये हुए आदमी इसी धरती से पानी और हवा को ले गये थे। सांस लेने के लिए हवा, पीने के लिए पानी आवश्यक रहा ही होगा। इससे बहुत बड़ी-भारी एक कौतूहलात्मक बाधा टल गई कि अन्य धरती से इस धरती तक आदमी पहुँच सकता है। यह एक बड़ी उपलब्धि इस शताब्दी का रहा है। इसमें मानव के लिए सकारात्मक पक्ष यही है, न जाने चाँद धरती के साथ कितने समय से रहा है उसमें अभी तक मानव, जीव, वनस्पति योग्य परिवेश बना नहीं। इस धरती पर इन सबके योग्य वातावरण समृद्ध हो चुका है। यह लाभ मानव को हुआ। उसके उपरान्त अनेकानेक प्रयोगों से अन्य धरती जिस पर इस सौर व्यूह के सीमा में कहीं होने का कल्पना से विभिन्न देशों से अंतरिक्ष यानों को भेजकर (उपग्रह) देखा गया। अभी तक इस सौर व्यूह में जीव-वनस्पति से समृद्ध अन्य धरती का पता नहीं लगा है। सर्वाधिक ग्रहों को विरल अवस्था में ही होना पाया गया। कई ग्रहों के