अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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1. मानव परंपरा में जागृति और उसका प्रमाण ही तृप्ति का स्त्रोत है। तृप्ति में मानवापेक्षा-जीवनापेक्षा का संतुलन ही है।

2. मानव परंपरा में सर्वतोमुखी समाधान का प्रयोजन, कार्य और प्रमाणों की आवश्यकता बना ही रहता है। फलस्वरूप हर व्यक्ति के लिये भागीदारी का स्थान इसमें बना ही रहता है।

3. जागृति पूर्णता और प्रामाणिकता सहित ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सर्वमानव में, से, के लिए समीचीन है।

4. सर्वतोमुखी समाधान पूर्वक ही स्वायत्त मानव, परिवार मानव, समाज मानव और व्यवस्था मानव प्रतिष्ठा प्रमाणित होता है।

5. जागृति पूर्वक ही अज्ञात का ज्ञात, अप्राप्ति का प्राप्ति समीचीन रहता है।

6. जागृति पूर्वक ही मानव अस्तित्व में अनुभूत होता है अथवा अस्तित्व में अनुभूत होना ही जागृति है।

उक्त क्रम से बौद्धिक रूप में समाधानित होना स्वभाविक है यह तथ्य स्पष्ट हो गया। यह तथ्य भी जागृति का ही द्योतक है। जागृति के अनन्तर हर व्यक्ति स्वाभाविक रूप में असंग्रह प्रतिष्ठा को समृद्धि पूर्वक, स्नेह प्रतिष्ठा को पूरकता पूर्वक, विद्या प्रतिष्ठा को जीवन विद्या पूर्वक, सरलता प्रतिष्ठा को सहअस्तित्व दर्शन पूर्वक, अभय प्रतिष्ठा को मानवीयता पूर्ण आचरण पूर्वक वैभवित होने के लिए सूझ-बूझ पूर्वक कार्य करता हुआ देखने को मिलता है। यही मुख्यत: बौद्धिक नियम है। ऐसे बौद्धिक नियम सम्पन्न मानव स्वाभाविक रूप में मानवीयता पूर्ण आचरण सम्पन्न होता है जो मूल्य, चरित्र, नैतिकता का अविभाज्य वैभव है। जिसमें से मानवीयतापूर्ण चरित्र जो स्वधन, स्वनारी/पुरुष, दयापूर्ण कार्य व्यवहार है। जो अखण्ड सामाजिक नियम के रूप में प्रभावित होता है। संबंधो में मूल्यों को पहचानना, निर्वाह करना, मूल्यांकन करना फलस्वरूप उभय तृप्ति ही मानवीय मूल्य का स्वरूप है। तन, मन, धन का सदुपयोग एवं सुरक्षा नैतिकता है। यद्यपि पहले भी सामाजिक नियम और प्राकृतिक नियम का विस्तृत व्याख्या कर चुके हैं। यहाँ जागृति और प्रामाणिकता पूर्वक उक्त तथ्यों को स्मरण में लाना उचित समझा