अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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चिन्तनाभ्यास का ही स्वरूप है। चाहे चिन्तनाभ्यास हो, चित्रणाभ्यास हो, विषयाभ्यास हो मानव अभ्यासी तो रहेगा ही। हर मानव कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित विधि से मानव अपने को अभ्यास विधा में ही प्रशस्त बनाए रखता है। जिसमें से विषयाभ्यास इंद्रिय सन्निकर्ष केन्द्रित होना पाया जाता है और चित्रणाभ्यास विश्लेषण केन्द्रित होना पाया जाता है जिसके लिये श्रुति और स्मृति स्त्रोत होना पाया जाता है। चित्रणाभ्यास सुविधा संग्रह के लिये व्यस्त रहना देखा गया। चिन्तनाभ्यास पूर्वक मानव स्वायत्त और परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। अनुभवमूलक विधि प्रणाली से हर मानव सर्वतोमुखी समाधान सहित समग्र व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह कर सकता है। यही जागृति का सर्वोच्च प्रयोजन भी है।

चिन्तनाभ्यास के साथ-साथ मानव में स्वाभाविक रूप में अनुभवात्मक स्वीकृतियाँ स्वयंस्फूर्त विधि से सम्पन्न होती है। यही संस्कार रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। मानवीयतापूर्ण संस्कार प्रतिष्ठा ही मानवत्व का स्थिर बिन्दु होना देखा गया है। इन्हीं सत्यतावश अनुभूत होना एक आवश्यकीय कार्य होता है। अनुभव जीवन तृप्ति के अर्थ में ही होता है जिसके प्रभाव मात्र से ही मानवापेक्षा की आपूर्ति हो जाती है। इससे यह पता चलता है कि बन्धन वश ही मानव में तनाव और ग्रंथियाँ बनी रहती हैं। बंधन मुक्ति के अनन्तर तनाव रहित विधि से ही सम्पूर्ण कार्यकलाप सम्पन्न होते हैं। यहाँ यह भी बोध समन्वित होता है कि स्वभाव गति प्रतिष्ठा में ‘त्व’ सहित व्यवस्था अक्षुण्ण रह पाता है। मानव में स्वभाव गति मानवत्व ही होना स्पष्ट हो चुकी है। मानवत्व सहज सम्पूर्ण कार्य यथा बौद्धिक, सामाजिक और प्राकृतिक नियम मानव के स्वभाव गति प्रतिष्ठा में सहज रूप में निर्वाह होना पाया जाता है। इस प्रकार जागृति की आवश्यकता स्वभाव गति प्रतिष्ठा के लिये अनिवार्य है। बौद्धिक समाधान का ध्रुव अस्तित्व और मानव होने की स्वीकृति है। अस्तित्व में मानव ज्ञानावस्था की इकाई होने के कारण मानव और अस्तित्व के बीच चारों अवस्थाएँ अध्ययन के लिये वस्तु होना पाया जाता है। जीवन प्रतिष्ठा सदा-सदा पीढ़ी रहते हुए मानव परंपरा में वैभवित होने के लिये ही संयोगित होना देखा गया है क्योंकि -