अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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प्रकाशन होता है फलत: हर व्यक्ति स्वायत्त मानव, परिवार मानव, समाज व्यवस्था मानव के रूप में प्रमाणित होता है। यही अनुभव परंपरा की गरिमा और महिमा है। इसी का फलन मानवापेक्षा और जीवनापेक्षा परिपूर्ति और तृप्ति व उसकी निरंतरता बन पाती है।

बौद्धिक समाधान का फलन ही बौद्धिक, सामाजिक और प्राकृतिक नियम

अस्तित्व में अनुभव का स्वीकृति ही अस्तित्व बोध और सर्वतोमुखी समाधान है। अस्तित्व अपने में सहअस्तित्व के रूप में वर्तमान है; सदा नियमित और व्यवस्थित है। इसी सत्यतावश मानव भी व्यवस्था में, से, के लिए समाधानित और समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व को प्रमाणित करने की विधि बौद्धिक, सामाजिक और प्राकृतिक नियमों के रूप में सार्थक होना पाया जाता है।

नियमपूर्वक ही व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी अस्तित्व में दृष्टव्य है। परमाणु अपने में व्यवस्था व समग्र व्यवस्था में भागीदारी का स्वरूप है। इसी क्रम में अणु, अणुरचित पिण्ड, मृदा, पाषाण, मणि, धातु, प्राणावस्था के बीजानुषंगीय प्रत्येक रचना-विरचना, वंशानुषंगीय सम्पूर्ण रचना-विरचना नियमपूर्वक व्यवस्था के रूप में ही प्रकाशित रहते हैं। पदार्थावस्था परिणामानुषंगीय विधि से ‘त्व’ सहित व्यवस्था, प्राणावस्था का सम्पूर्ण प्रकाशन बीजानुषंगीय विधि से त्व सहित व्यवस्था, जीव संसार में सम्पूर्ण प्रकाशन वंशानुषंगीय विधि से त्व सहित व्यवस्था व मानव प्रकृति में संस्कारानुषंगीय (ज्ञानानुषंगीय) विधि से त्वसहित व्यवस्था होना पाया जाता है।

संस्कार का मूल रूप अनुभव के प्रकाश में किया गया स्वीकृतियाँ है। समग्र अध्ययन का स्वरूप ही है। समग्र अस्तित्व को अनुभव योग्य वस्तुओं के रूप में स्वीकारना प्रमाणित करना ही संस्कार है। संस्कार का तात्पर्य यही है पूर्णता के अर्थ में अनुभवमूलक विधि से प्रस्तुत क्रियाकलाप। शिक्षा के रूप में सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज के अर्थ में स्थापित होना सार्थक संस्कार है। संस्कारित होने का ही प्रमाण है मानवीयता पूर्ण आचरण और व्यवस्था में भागीदारी। इस विधि से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनुभवमूलक विधि से अनुभव योग्य तथ्यों को